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श्री संवेगरंगशाला
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राजा ने कहा कि - हे भगवन्त ! अप्रतिम स्वरूप वाले और लक्षणों से प्रगट रूप अति विशाल वैभव वाले दिखते हुए भी आप अशरण कहते हो, वह मैं किस तरह सत्य मानूं ? अथवा ऐसे संयम से क्या लाभ है ? मैं आपका शरण बनता हूँ, घरवास को स्वीकार करो और विषय सुख का उपभोग करो। क्योंकि फिर मनुष्य जन्म मिलना अति कठिन है । मुनि ने कहा कि - हे नरवर ! आप स्वयं भी शरण रहित हैं तो अन्य को शरण देने का सामर्थ्य किस तरह हो सकता है । तब संभ्रम बने राजा ने कहा कि- मैं बहुत हाथी घोड़े, रथ और लाखों सुभटकी सामग्री वाला हूँ तो मैं अन्य का शरणभूत कैसे नहीं हो सकता हूँ ? अतः हे भगवन्त ! असत्य मत बोलो अथवा आप मुझे भी 'तुम भी अशरण है' ऐसा क्यों कहते हो ? मुनि ने कहा कि भूमिनाथ । तुम अशरणता का अर्थ को और मेरे अशरणता का कारण जानते ही नहीं हो, आप एकाग्रचित्त से उसे सुनो :
मेरा पिता कौशाम्बी नगरी में धन से कुबेर के वैभव विस्तार की हँसी करने वाला, महान् ऋद्धि सिद्धि वाला, बहुत स्वजनवर्ग वाला और जगत में प्रसिद्ध था । उस समय मुझे प्रथमवय में ही अति दुःसह, अति कठोर नेत्र पीड़ा हुई और उससे शरीर में जलन होने लगी । अतः शरीर में मानो बड़ा तीक्षण भाला भ्रमण करता हो अथवा वज्रमार के समान अति भयंकर नेत्र पीड़ा के भार से मैं परवश हो गया । अनेक मन्त्र तन्त्र विद्या और चिकित्सा शास्त्रों के अर्थ के जानकार लोगों ने मेरी चिकित्सा की, परन्तु थोड़ा भी आराम नहीं मिला । पिता ने भी मेरी अल्पमात्र भी वेदना शान्त करने के लिए सर्वस्व देने के लिए स्वीकार किया । माता, भाई, बहन, स्त्री, मित्रादि सर्व स्वजन समूह भी भोजन पान विलेपन आभूषण आदि प्रवृत्ति छोड़कर अत्यन्त मन दुःख निकलते आंसुओं से मुख को घोटते रोते, किं कर्त्तव्यमूढ़ होकर मेरे पास में बैठे तथापि अल्पमात्र भी चक्षुवेदना कम नहीं हुई । 'अहो ! मेरा कोई शरण नहीं है' इस तरह बार-बार चिन्तन करते मैंने प्रतिज्ञा की कि यदि इस वेदना से मुक्त हो जाऊँगा तो सर्व सम्बन्धों को छोड़कर साधु धर्म को स्वीकार करूँगा । ऐसी प्रतिज्ञा करने से मुझे रात को नींद आ गई, वेदना शान्त हुई और मैं पुनः स्वस्थ शरीर वाला हो गया उसके बाद प्रभात काल में स्वजन वर्ग की आज्ञा लेकर श्री सर्वज्ञ परमात्मा कथित दीक्षा का मैंने शरण रूप स्वीकार किया है । इसलिए हे नरवर ! ऐसे दुःख के समूह से घिरे हुए जीव को श्री जिनेश्वर प्रभु के धर्म बिना अन्य से रक्षण अथवा शरण नहीं है। ऐसा सुनकर राजा 'ऐसा ही है' ऐसा स्वीकार के मुनि को नमस्कार करके