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श्री संवेगरंगशाला
गोकुल में जाकर सेठ अपनी गायों के समूह की सार सम्भाल करता था। प्रत्येक महीने में सेठ वहाँ से घी, दूध से भरे हुये बैलगाड़ी लाता था और स्वजन, मित्र तथा दीन दरिद्र मनुष्यों को देता था। बन्धुमती भी श्री जैनेश्वर देव के धर्म को सुनकर हिंसादि, पाप स्थानकों की त्याग वाली प्रशम गुण वाली श्राविका बनी थी। फिर जीवन का इन्द्र धनुष्य समान चंचलत्व होने से क्रमशः सागर दत्त सेठ की किसी दिन मृत्यु हो गयी और नागरिक और स्वजनों ने उस नगर सेठ के स्थान पर मुनिचन्द्र को स्थापन किया । वह स्व-पर के सारे कार्यों में पूर्व पद्धति के अनुसार करने लगा। थावर नौकर भी पूर्व अनुसार उसका अति मान करता था और मित्र के समान, पुत्र के समान तथा स्वजन के समान घर का कार्य करता था।
__ केवल कामाग्नि से पीड़ित, उससे व्याकुल दुःशील संपदा स्त्री स्वभाव से और विवेक शून्यता से थावर को देखकर चिन्तन करने लगी कि-एकान्त में रहकर मैं किस उपाय से इसके साथ किसी भी रोक-टोक के बिना विघ्न रहित विषय सुख को कब भोग करूँगी ? अथवा किस तरह इस मुनिचन्द्र को मारकर इस थावर को धन सुवर्ण से भरे हुये अपने घर का भी मालिक बनाऊँगी ? इस तरह विचार करती वह स्नान, भोजनादि द्वारा थावर की सविशेष सेवा करने लगी। अहो ! पापी स्त्रियों की कैसी दुष्टता ? उसके आशय को नहीं जानते थावर इस तरह उसका व्यवहार देखकर ऐसा मानने लगा कि इस तरह मुझे पुत्र तुल्य मान अपना मातृत्व बता रही है। एक समय लज्जा को छोड़कर और अपने कुल की मर्यादा को दूर रखकर उसने एकान्त में सर्व आदरपूर्वक उसे आत्मा सौंप दी, अन्तःकरण की सत्य बात कही कि-हे भद्र ! मुनिचन्द्र को मार दो, इस घर में मालिक के समान विश्वस्त तू मेरे साथ भोग विलास कर। उसने पूछा कि-इस मुनिचन्द्र को किस तरह मारूँ ? उसने कहा कि मैं तुझे और उसको गोकुल देखने के लिये जब भेजूंगी तब मार्ग में तू तलवार से उसे मार देना, उसने वह स्वीकार किया। निर्लज्ज को क्या अकरणीय है ? यह बात बन्धुमती ने सुन ली और स्नेहपूर्वक उसी समय घर में आते भाई को कह दी। उसको मौन करवा कर मुनिचन्द्र घर में आया और माता भी कपट से रोने लगी। उसने पूछा कि-हे माता जी! आप क्यों रो रही हो? माता ने कहा कि-पुत्र ! अपने कार्य को कमजोर देखकर मैं रो रही हूँ। तेरा पिता जब जीता था तब अवश्य मास पूर्ण होते देखकर गोकुल में से घी, दूध लेकर देते थे। हे पुत्र ! तू तो अब अत्यन्त प्रमादवश हो गया है, इसलिये गोकुल की अल्प भी सार सम्भाल नहीं करता, कहो अब किसको