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श्री संवेगरंगशाला
भी उसने इस तरह पराभव किया, उससे मुझे अब जीने से क्या प्रयोजन है ? धन रक्षित ने कहा- पुरुष के गुण-दोष के ज्ञान से रहित स्त्रियों के प्रति मिथ्या शोक क्यों करते हो ? बाद में मुश्किल से ले आया, परन्तु रात को निकलकर उसने तापस मुनि के पास दीक्षा ली। उसने अज्ञान तप करके आखिर मरकर देवलोक में उत्पन्न हुआ । वहाँ आयुष्य पूर्ण कर वह यह वसुदेव नाम से सुन्दर रूप वाला धनपति का पुत्र हुआ । और रूप मद से अत्यन्त उन्मत्त मन वाला धन रक्षित भी परलोक के कार्यों का प्रायश्चित किए बिना मरकर चिरकाल तिर्यंच आदि गतियों में परिभ्रमण कर, रूप मद के दोष से इस प्रकार सर्व अंगहीन विकल अंग वाला और लावण्य रहित यह स्कन्ध नाम से उत्पन्न हुआ है । अतः जो तुमने पहले परमार्थ पूछा था, वह यह है । इस प्रकार सुनकर जो उचित हो उसका आचरण करो । ऐसा सुनकर वहाँ अनेक जीव को प्रतिबोध हुआ और वे दोनों धनपति के पुत्रों ने दीक्षा लेकर मुक्ति पद प्राप्त किया । इस तरह रूप मद से दोष प्रगट होता है और उसके त्याग करने से गुण होते जानकर, हे क्षपक मुनि ! तुझे अल्पमात्र भी रूपमद नहीं करना चाहिए । इस तरह मैंने यह तीसरा रूपमद स्थान को कुछ बतलाया है । अब चौथा बलमद स्थान को संक्षेप से कहता हूँ ।
४. बलमद द्वार : -अनियत रूपत्व से क्षण में बढ़ता है और क्षण में घटता है ऐसा जीवों का शरीर बल अनित्य है ऐसा जानकर कौन बुद्धिमान उसका मद—अभिमान करे । पुरुष प्रथम बलवान और सम्पूर्ण गाल कनपट्टी वाला होकर भय, रोग तथा शोक के कारण जब क्षण में निर्बल होता है तथा निर्बलता होते अति शुष्क गाल और कनपट्टी होता है और उपचार करने से पुनः वह बलवान हो जाता है और प्रबल बल वाला मनुष्य भी मृत्यु के सामने जब नित्य अत्यन्त निर्बल होता है तब बलमद करना किस तरह योग्य है ? सामान्य राजा बल से श्रेष्ठ होता है तथा उससे बलदेव और बलदेवों से भी चक्रवर्ती अधिक, अधिक श्रेष्ठ होता है, उससे भी तीर्थंकर प्रभु अनन्त बली होते हैं । इस तरह निश्चय बल में उत्तरोत्तर अन्य अधिक श्रेष्ठ होते हैं, फिर भी अज्ञ आत्मा बल का गर्व मिथ्या करते हैं । क्षयोपशम से उपार्जित अल्प बल से भी जो मद करता है, वह मल्लदेव राजा के समान इस जन्म में भी मृत्यु प्राप्त करता है । वह इस प्रकार है :