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श्री संवेगरंगशाला
के वचन हैं कि 'मद्य और प्रमाद से मुक्त' तथा 'मद्य मांस को नहीं खाना चाहिए' इस तरह मद्यपान उभय शास्त्र से निषिद्ध है। मैं मानता हूँ कि-पाप का मुख्य कारण मद्य है, इसलिए ही विद्वानों ने सर्व प्रमादों में इसे प्रथम स्थान दिया है। क्योंकि मद्य में आसक्त मनुष्य उसे नहीं पीने से आकांक्षा वाला और पीने के बाद भी सर्व कार्यों में विकल बुद्धि वाला होता है। इसलिए उसमें आसक्त जीव नित्यमेव अयोग्य है । मद्य से मदोन्मत्त बने हुए की विद्यमान बुद्धि भी नहीं रहती है, ऐसा मेरा निश्चय अभिप्राय है। अन्यथा वे अपना धन क्यों गंवायें और अनर्थ को कैसे स्वीकार करें ? मद्यपान से इस जन्म में ही शत्रु से पकड़ा जाना आदि कारण होते हैं और परलोक में दुर्गति के अन्दर जाना आदि अनेक दोष होते हैं। मैं जानता हूं कि मद्य से मत्त बना हुआ बोलने में स्खलन रूप होता है। वह आयुष्य का क्षय नजदीक आया हो, इस तरह और नीचे लोटता है। वह नरक में प्रस्थान करता हो वैसे स्वयं नरक में जाता है। आँखें लाल होती हैं वह नजदीक रहा नरक का ताप है, और निरंकुश हाथ इधर-उधर लम्बा करता है वह भी निराधार बना हो, उसका प्रतीक है। यदि मद्य में दोष नहीं होता तो ऋषि, ब्राह्मण और अन्य भी जो-जो धर्म के अभिलाषा वाले हैं वे क्यों नहीं पीते ? प्रमाद का मुख्य अंग और शुभचित्त को दूषित करने वाले मद्य में अपशब्द बोलना इत्यादि अनेक प्रकार के दोष प्रत्यक्ष ही हैं। सूना है कि कोई लौकिक ऋषि महातपस्वी भी देवियों में आसक्त होकर मद्य से मूढ़ के समान विडम्बना को प्राप्त किया। वह कथा इस प्रकार है :
लौकिक ऋषि की कथा कोई ऋषि तपस्या कर रहा था। उसके तप से भयभीत होकर इन्द्र ने उसे क्षोभित करने के लिये देवियों को भेजा । तब उन्होंने आकर उसे विनय से प्रसन्न किया और वह वरदान देने को तैयार हुआ। तब उन्होंने कहा किमद्यपान करो, हिंसा करो, और हमारा सेवन करो तथा देव की मूर्ति का खंडन करो। यदि ये चारों न करो तो भगवन्त कोई भी एक को करो। ऐसा सुनकर उसने सोचा कि-शेष सब पाप नरक का हेतु है और मद्य सुखकारण है, ऐसा अपनी मति से मानकर उसने मद्य को पिया, इससे मदोन्मत्त बना उसने निर्भर अति मांस का परिभोग किया, उस मांस को पकाने के लिए काष्ठ की मूर्ति के टुकड़े किये और लज्जा को छोड़कर तथा मर्यादा को एक ओर रखकर उसने उन देवियों के साथ भोग भी किया। इससे तप शक्ति को खण्डित करने वाला वह मर कर दुर्गति में गया, इस तरह मद्य अनेक पापों का कारण और दोषों