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श्रो संवेगरंगशाला
यथार्थ बोध कराने वाला अंग प्रविष्ट, अनंग प्रविष्ट उभय प्रकार के श्रुत रूप धर्म का और विधि निषेध के अनुसार क्रियाओं से युक्त, चारित्र रूप धर्म का, तू शरण रूप में स्वीकार कर । आठ प्रकार के कर्म समूह को नाश करने वाला, दुर्गति का निवारण करने वाला, कायर मनुष्यों को चिन्तन अथवा सुनने का भी दुर्लभ, तथा अतिशयों से विचित्र द्रव्य भाव रूप सभी अति प्रशस्त महा प्रयोजन की लब्धि रूप, ऋद्धि में कारणभूत और असुरेन्द्र, सुरेन्द्र, किन्नर, व्यंतर तथा राजाओं के समूह का भी वन्दनीय गुण वाला श्री जैनेश्वरों के धर्म को हे सुन्दर मुनि ! तू शरण रूप स्वीकार कर । सद्भाव बिना भी केवल बाह्य क्रिया कलाप रूप में भी हमेशा करते जिस धर्म का फल अवेयक देव की समृद्धि की प्राप्ति है और भावपूर्वक उत्कृष्ट आराधना करते इसी जन्म अथवा जघन्य से आराधक को साठ आठ जन्म में मुक्ति का फल देका है । इस प्रकार लोकोत्तम गुण वाला, लोकोत्तम गुणधारी गणधर भगवन्तों से रचित, लोकोत्तम आत्माओं ने पालन किया हुआ और फल भी लोकोत्तम सर्वश्रेष्ठ देने वाला, श्री केवल भगवन्तों द्वारा कथित और सिद्धान्त रूप में गणधरों ने गंथा हुआ भगवान रम्य धर्म का, हे धीर मुनि ! तू सम्यक् शरण स्वीकार कर ।
चार शरण द्वार का उपसंहार :-इस तरह हे क्षपक मुनि । चार शरण को स्वीकार करने वाला और कर्मरूपी महान् शत्रु से उत्पन्न हुआ भय को भी नहीं मानने वाला-निर्भय, तुम शीघ्रमेव इच्छित अर्थ को प्राप्त करो। इस प्रकार 'चार शरण का स्वीकार' नामक ग्यारहवाँ अन्तर द्वार कहा है अब दुष्कृत गर्दा नामक बारहवाँ अन्तर द्वार कहता हूँ। ___ बारहवाँ दुष्कृत गर्दा द्वार :-हे धीर मुनिराज । श्री अरिहंत आदि चार के शरण स्वीकार करने वाला तू अब भावी कट् विपाक को रोकने के लिये दुष्कृत्य की गर्दा कर अर्थात् पूर्व में किए पापों की निन्दा कर। उसमें श्री अरिहंतों के विषय में अथवा उनके मन्दिर-चैत्यालय के विषय में, श्री सिद्ध भगवन्तों के विषय में, श्री आचार्यों के विषय में, श्री उपाध्यायों के विषय में, तथा श्री साधु, साध्वी के विषय में, इत्यादि अन्य भी वन्दन, पूजन, सत्कार या सन्मान करने के योग्य विशुद्ध सर्व धर्म स्थानों के विषय में तथा माता, पिता, बन्धु, मित्रों के विषय में अथवा उपकारियों के विषय में कदापि किसी भी प्रकार से, मन, वचन, काया से भी अनुचित किया हो और जो कोई उचित भी नहीं किया हो, उन सबकी त्रिविध-त्रिविध सम्यग् गर्दा (स्वीकार) कर। आठ मद स्थानों में और अट्ठारह पाप स्थानकों में भी किसी तरह कभी भी प्रवृत्ति