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श्री संवेगरंगशाला
करके प्रतिकार नहीं करना । रति, अरति, हर्ष, भय, उत्सुकता, दीनता आदि से युक्त भी तू भोग-परिभोग के लिए जीव वध का विस्तार मत करना । तीन जगत की ऋद्धि और प्राण-इन दो में से तू किसी की एक का वरदान माँग । ऐसा देवता कहे तो अपने प्राणों को छोड़कर तीन जगत की ऋद्धि का वरदान कौन याचना करे ? इस तरह जीव के जीवन की कीमत तीन जगत की ऋद्धि से अधिक है उसकी समानता नहीं हो सकती है इसलिए वह जीवन तीन जगत की प्राप्ति से भी दुर्लभ और सदा सर्व को प्रिय है। जैसे मधुमक्खी थोड़े-थोड़े संचय कर बहुत मद्य को एकत्रित करता है, वैसे अल्प-अल्प करते क्रमशः तीन जगत का सारभूत महान् संयम को प्राप्त करके हिंसा रूपी महान घड़ों से अब उसका त्याग नहीं करना । जैसे अणु अथवा परमाणु से कोई छोटा नहीं है और आकाश से कोई बड़ा नहीं है, इस प्रकार जीव रक्षा के समान अन्य कोई श्रेष्ठव्रत नहीं है। तथा जैसे सर्व लोक में और पर्वतों में मेरू गिरि ऊँचा है वैसे सदाचारों में और व्रतों में अहिंसा को अति महान् समझना । जैसे आकाश का आधार लोक है और भूमि का आधार द्वीप-समुद्र रहता है वैसे अहिंसा का आधार तप, दान और शील जानना। क्योंकि जीवलोक में विषय सुख जीव वध के बिना नहीं है इसलिए विषय से विमुख जीव को ही जीव दया महाव्रत होता है। विषय संग के त्यागी प्रासूक आहार-पानी के भोगी, और मन, वचन, काया से गुप्त आत्मा में शुद्ध अहिंसा व्रत होता है। जैसे प्रयत्न करने पर भी मूल के बिना चक्र में आरा स्थिर नहीं रहता है, और आरा बिना जैसे मूल भी अपने कार्य को सिद्धि नहीं हो सकता वैसे अहिंसा बिना शेष गुण अपने स्थान का आधार भूत नहीं होता है और उस गुण से रहित अहिंसा भी स्व कार्य की सिद्धि नहीं कर सकता है। सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और रात्री भोजन का त्याग तथा दीक्षा आदि स्वीकार करना वे सब अहिंसा की रक्षण के लिए हैं।
क्योंकि असत्य बोलने आदि से दूसरे को कठोर दुःख होता है इसलिए उन सबका त्याग करना वही अहिंसा गुण के श्रेष्ठ आधार भूत है। हिंसा का व्यसनी राक्षस के समान जीवों को उद्वेग करता है, एवं सगे सम्बन्धी जन भी हिंसक मनुष्य पर विश्वास नहीं करते हैं। हिंसा जीव और अजीव दो प्रकार की होती है। उसमें जीव की हिंसा एक सौ आठ प्रकार की है और अजीव की हिंसा ग्यारह प्रकार की है। जीव हिंसा तीन योग होती है वह चार कषाय द्वारा, करना, करवाना और अनुमोदना द्वारा तथा संकल्प समारम्भ और आरम्भ द्वारा परस्पर गुणा करने से ३४४४३४३=१०८ भेद होते हैं।