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श्री संवेगरंगशाला
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साधु को भी आहार, पानी को दृष्टि से देखने की जयणा करने से प्रथम व्रत की दूसरी भावना होती है । वस्त्र पत्त्रादि उपकरणों को लेना, रखने में प्रर्माजन करना और पडिलेखना पूर्वक जयणा करने वाले को प्रथम व्रत की तीसरी भावना होती है । मन को अशुभ विषय से रोककर आगम विधिपूर्वक शुभ विषय में सम्यग् जोड़ने वाले को प्रथम व्रत की चौथी भावना होती है । और अकार्य में से वाणी के वेग को रोककर शुभ कार्य में भी आगम विधि अनुसार बुद्धिपूर्वक विचार कर वचन को उच्चारण करने वाला प्रथम व्रत की पाँचवीं भावना होती है । ऊपर कहे अनुचार से विपरीत प्रवृत्ति करने वाला पुनः जीवों की हिंसा करता है, अतः प्रथम व्रत की दृढ़ता के लिए पांच भावनाओं में उद्यम करना चाहिए ।
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दूसरे व्रत की भावना :- हांसी के बिना बोलने वाले को दूसरे व्रत की पहली भावना है और विचार कर बोलने वाले को दूसरे व्रत की दूसरी भावना होती है । प्रायः कर क्रोध, लोभ और भय से असत्य बोलने का कारण हो सकता है, इसलिए क्रोध, लोभ और भय के त्यागपूर्वक ही बोलने में दूसरे व्रत की शेष तीन अर्थात् तीसरी, चौथी और पांचवीं भावनायें होती हैं ।
तीसरे महाव्रत की भावना :- मालिक अथवा मालिक ने जिसने सौंपा हो उसे विधिपूर्वक अवग्रह - उपयोग करने आदि की भूमि की मर्यादा बतानी चाहिए, अन्यथा अप्रीतिरूपभाव अदत्तादान होता है । यह तीसरे व्रत की प्रथम भावना जानना द्रव्य क्षेत्र आदि चार प्रकार के अवग्रह की मर्यादा बताने के लिये गृहस्थ द्वारा उसकी आज्ञा प्राप्त करे वह तीसरे व्रत की दूसरी भावना है फिर मर्यादित किये अवग्रह को ही हमेशा विधिपूर्वक उपयोग करे अन्यथा अदत्तादान लगता है । इस तरह तीसरे व्रत की तीसरी भावना है । सर्व साधुओं के साधारण आहार और पानी में से भी जो शेष साधु को तथा गुरुदेव ने अनुमति दी हो वही उसका उपयोग करने वाले तीसरे व्रत की चौथी भावना होती है । गीतार्थ को मान्य उद्यत विहार आदि गुण वाले साधुओं को मांसादि प्रमाण वाला काल अवग्रह, जाते आते पांच कोस आदि मर्यादा रूप क्षेत्र अवग्रह एवं उनकी वसति आदि प्रत्येक को उनकी अनुज्ञापूर्वक उपयोग करे, अन्यथा अदत्तादान दोष लगता है यह तीसरे व्रत की पाँचवीं भावना जानना । चौथे महाव्रत की भावना :- ब्रह्मचर्य व्रत पालन करने वाला मुनि अति स्निग्ध आहार को एवं ऋक्ष (रुखा सूखा ) भी अति प्रमाण आहार का त्याग करे वह निश्चय चौथे व्रत की प्रथम भावना होती है । अपनी शोभा के लिए शृंगारिक वस्तुओं का योग तथा शरीर शाखून, दांत, केस का शृंगार नहीं