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श्री संवेगरंगशाला क्योंकि लोभ से लोभ बढ़ता है। जैसे इन्धन से अग्नि, और नदियों से समुद्र तृप्त नहीं होता वैसे जीव को तीनों लोक मिल जायें, फिर भी तृप्ति नहीं होती है। जैसे हाथ में मांस वाले निर्दोष पक्षी को दूसरे पक्षी उपद्रव करते हैं वैसे निरपराधी धनवान को भी अन्य मारते हैं, वध करते हैं, रोकते हैं और भेदन छेदन करते हैं। धन के लिए जीव माता, पिता, पुत्र और स्त्री में भी विश्वास नहीं करता है और उसकी रक्षा करते समग्र रात्री जागृत रहता है। अपना धन जब नाश होता है तब पुरुष अन्तर में जलता है, उन्मत्त के समान विलाप करता है, शोक करता है और पुनः धन प्राप्ति करने की उत्सुकता रखता है। स्वयं परिग्रह का ग्रहण, रक्षण, सार सम्भाल आदि करते व्याकुल मन वाला मर्यादा भ्रष्ट हुआ जीव शुभ ध्यान में किस तरह कर सकता है ?
__ और धन में आसक्त हृदय वाला जीव अनेक जन्मों तक दरिद्र होता है और कठोर हृदय वाला वह धन के लिए कर्म का बन्धन करता है । धन को छोड़ने वाला मुनि इन सब दोषों से मुक्त होता है और परम अभ्युदय रूप मुख्य गुण समूह को प्राप्त करता है। जैसे मन्त्र, विद्या और औषध बिना का पुरुष अनेक सर्पो वाले जंगल में अनर्थ को प्राप्त करता है वैसे धन को रखने वाला मुनि भी महान् अनर्थ को प्राप्त करता है। मन पसन्द अर्थ में राग होता है और मनपसन्द न हो तो द्वेष होता है ऐसे अर्थ का त्याग करने से रागद्वेष दोनों का त्याग होता है। परीग्रहों से बचने के लिए उपयोगी धन का सर्वथा छोड़ने वाला तत्त्व से ठण्डी, ताप, डांस, मच्छर आदि परीषहों को छाती देकर हिम्मत रखी है। अग्नि का हेतु जैसे लकड़ी है, वैसे कषायों का हेतु आसक्ति है इसलिए सदा अपरिग्रही साधु ही कषाय की संलेखना को कर सकते हैं वही सर्वत्र नम्र अथवा निश्चिन्त बनता है और उसका स्वरूप विश्वास पात्र बनता है, जो परिग्रह में आसक्त है वह सर्वत्र अभिमानी अथवा चिंतातुर और शंका पात्र बनता है इसलिए हे सुविहित मुनिवर्य ! तू भूत, भविष्य और वर्तमान में सर्व परिग्रह को करना, करवाना और अनुमोदना का सदा त्याग करे । इस तरह सर्वपरिग्रह का त्यागी प्रायः उपशान्त बना, प्रशान्त चित्तवाला साधु जीते हुए भी शुद्ध निर्वाण-मोक्ष सुख को प्राप्त करता है। इन व्रतों से आचार्य भगवन्त आदि महान् प्रयोजन सिद्ध करते हैं और स्वरूप से वह बड़े से भी बड़ा है इसलिए इसे महाव्रत कहते हैं । इन व्रतों की रक्षा के लिए सदा रात्री भोजन का त्याग करना चाहिए और प्रत्येक व्रत की भावनाओं से अच्छी तरह चिन्तन करे।
प्रथम महाव्रत की भावना :-युग प्रमाण नीचे दृष्टि रखकर अखंड उपयोग पूर्वक कदम रखकर शीघ्रता रहित जयणापूर्वक चलने वाले को प्रथम व्रत की प्रथम भावना होती है। बीयालीस दोष रहित ऐसना की आराधना