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श्री संवेग रंगशाला
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जगत के श्रेष्ठ पूज्यनीय हैं, शाश्वत सुख स्वरूप हैं, सर्वथा वर्ण, रस और रूप से रहित हुए और जो मंगल का घर, मंगल के कारणभूत एवं परम ज्ञानमयज्ञानात्मक शरीर वाले हैं, ऐसे श्री सिद्ध भगवन्तों का हे सुन्दर मुनि ! तू शरण स्वीकार कर । और लोकान्त - लोक के अग्र भाग में सम्यग् स्थिर हुए हैं, दुःसाध्य सर्व प्रयोजनों को जिन्होंने सिद्ध किया है, सर्वोत्कृष्ट प्रतिष्ठा को प्राप्त की है, और इससे ही वे निष्ठितार्थ - कृतकृत्य भी हैं, जो शब्दादि के इन्द्रियजन्य विषयभूत नहीं हैं, आकार रहित हैं, जिनको इन्द्रिय जन्य क्षायोपरामिक ज्ञान नहीं है और उत्कृत्य अतिशयों से समृद्धशाली है उन श्री सिद्धों का शरण स्वीकार कर एवं जो तीक्ष्ण धाराओं से अच्छेद्य, सर्व सैन्य से अभेद्य अजय, जल समूह भीगा नहीं सकता, अग्नि जला नहीं सकती, प्रलय काल का प्रबल वायु से भी जलायमान न हो सकता, वज्र से भी चूर नहीं हो सकता ऐसे सूक्ष्म निरंजन, अक्षय और अचित्य महिमा वाले हैं तथा अत्यन्त परम योगी ही उनका यथा स्थित स्वरूप जान सकते हैं ऐसे कृतकृत्य नित्य जन्म जरा मरण से रहित तथा श्रीमंत, भगवन्त, पुनः संसारी नहीं होने वाले, सर्व प्रकार से विजय को प्राप्त हुए परमेश्वर और शरण स्वीकारने योग्य श्री सिद्ध परमात्मा को हे सुन्दर मुनि ! निज कर्मों को छेदन करने की इच्छा वाले आराधना में सम्यक् स्थिर और विस्तार होते तीव्र संवेग रस का अनुभव करते तू शरणरूप स्वीकार कर ।
साधु का स्वरूप और शरणा स्वीकार :- हमेशा जिन्होंने जीव अजीव आदि परम तत्त्वों के समूह को सम्यग् रूप में जाना है, प्रकृति से ही निर्गुण संसार वासना के स्वरूप को जो जानते हैं संवेग से महान् गीतार्थ, शुद्ध क्रिया में परायण, धीर और सारणा, वारण नोदना, और प्रतिनोदना को करने वाले और जिन्होंने सद्गुरू की निश्रा में पूर्णरूप से साधुता को सम्यक् स्वीकार की है ऐसे निग्रन्थ श्रमणों का है सुन्दर मुनि ! तू शरण स्वीकार कर । तथा मोक्ष में एक बद्ध लक्ष्य वाले संसारिक सुख से वैरागी चित्त वाले, अति संवेग से संसारवास प्रति सर्व प्रकार से थके हुए और इससे ही स्त्री, पुत्र, मित्र आदि के प्रति चित्त बन्धन से रहित तथा घरवास की सर्व आभक्ति रूप चित्त के बन्धन से भी सर्वथा रहित, सर्व जीवों के आत्म तुल्य मानने वाले, अत्यन्त प्रशमरस से भीगे हुए सर्व अंग वाले निर्ग्रन्थ साधुओं का, हे सुन्दर मुनि ! तू शरण स्वीकार कर । इच्छा-मिच्छा आदि, प्रति लेखना, प्रमार्जना आदि, अथवा दशविध चक्र वाली समाचारी प्रति अत्यन्त रागी, दो, तीन, चार अथवा पाँच दिन या अर्द्ध मास उपवास आदि तप के विविध प्रकारों में यथा