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श्री संवेगरंगशाला
धन सेठ की पुत्रवधुओं की कथा राजगृह नगर में धन नाम का सेठ था, उसके धनपाल आदि चार पुत्र और उज्जिका, भोगवती, रक्षिका तथा रोहिणी नाम की चार पुत्रवधू थीं। सेठ जी की उम्र परिपक्व होने से चिंता हुई कि अब किस पुत्रवधू को घर का कार्य भार सौंपू । फिर परीक्षा के लिए भोजन मण्डप तैयार करवाया और सभी को निमन्त्रण किया, भोजन करवाने के बाद उनको स्वजनों के समक्ष 'इसे सम्भाल कर रखना और जब मांगू तब देना' ऐसा कहकर आदर पूर्वक प्रत्येक को पाँच-पाँच धान के दाने दिये। पहली बहू ने उसे फेंक दिया। दूसरी ने छिलका निकाल कर भक्षण किया, तीसरी ने बांधकर आभूषण समान रक्षण कर रखा और चौथी ने विधिपूर्वक पीहर बोने के लिए भेजा। बहुत समय जाने के बाद पूर्व के समान भोजन करवा कर सगे सम्बन्धियों के समक्ष उन दानों को मांगा। प्रथम और दूसरी उसका स्मरण होते ही विलखनी बन गईं। तीसरी ने वही दाने लाकर दिये और चौथी ने चाभी दी और कहा कि गाड़ी भेजकर मँगा लो क्योंकि आपके उस वचन का पालन इस तरह वृद्धि करने से होता है अन्यथा शक्ति होने पर विनाश होने से सम्यग् पालन नहीं माना जाता है। फिर धन सेठ ने उनके स्वजनों को कहा कि-आप मेरे कल्याण साधक हितस्वी हो, तो इस विषय में मुझे क्या करना योग्य है उसे आप कहो ? उन्होंने कहा कि आप अनुभवी हो आपको जो योग्य लगे उसे करो। इससे उन्होंने अनुक्रम से घर की सफाई का कार्य, घर के कोठार, भण्डार और घर सम्भाल कार्य सौंप दिया और इससे सेठ जी की प्रशंसा हुई।
इस दृष्टान्त का उपनय इस प्रकार जानना । सेठ के समान संयम जीवन में गुरू महाराज हैं, स्वजन समान श्रमण संघ है, पुत्र वधुओं के समान भव्य जीव और धान के दाने के समान महाव्रत हैं । जैसे वह धान के दाने फेंक देने वाली यथार्थ नाम वाली उज्झिता दासीत्व प्राप्त करने से बहुत दुःखों की खान बनी। वैसे ही जो कोई भव्यात्मा गुरू ने श्रीसंघ समक्ष दिए हुए महाव्रत को स्वीकार करके महामोह से त्याग कर देता है, वह इस संसार में ही मनुष्यों के द्वारा धिक्कार पात्र बनता है और परलोक में दुःखों से पीड़ित विविध हल्की योनियों में भ्रमण करता है। अथवा जैसे वह धान के खाने वाली यथार्थ नाम वाली भोगवती ने पीसना आदि घर के कार्य विशेष करने से दुःख को ही प्राप्त किया। उसी तरह महाव्रतों का पालन करते हुए भी आहारादि में आसक्त, मोक्ष साधना से भाबना रहित व्रतों को आजीविका का हेतु मानकर उससे