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श्री संवेगरंगशाला
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उसमें संकल्प करना, उसे संरंभ, परिताप करना उसका समारम्भ और प्राण नाश करना वह आरम्भ है ऐसा सर्व विशुद्ध नयों का मत है । अजीव हिंसा के निक्षेप, निवृत्ति संयोजन और निसर्ग ये चार मूल भेद हैं उसके क्रमशः चार, दो, दो और तीन भेद से ग्यारह भेद होते हैं । उसमें १ - अप्रमार्जना, २- दुष्प्रमार्जन, ३ - सहसात्कार और ४ - अनाभोग इस तरह निक्षेप के चार भेद होते हैं । काया से दुष्ट व्यापार करना और ऐसे हिंसक उपकरण बनाने इस तरह निवृत्ति के दो भेद हैं । उपकरणों की संयोजन और आहार, पानी की संयोजन इस तरह संयोजन के भी दो भेद होते हैं । और दुष्ट-उन्मार्ग में जाते मन, वचन और काया ये निसर्ग के तीन भेद हैं । जो हिंसा की अविरती रूप वध का परिणाम हिंसा है, इस कारण से प्रमत्त योग वही नित्य प्राण घातक हिंसा है | अधिक कषायी होने से जीव जीवों का घात करता है, अतः जो कषायों को जीतता है वह वास्तविक में जीववध का त्याग करता है । लेने में, रखने में, त्याग करने में, खड़े रहने में या बैठने में, चलने में और सोने आदि सर्वत अप्रमत्त और दयालु जीव में निश्चय अहिंसा होती है । इसलिए छह काय जीवों का अनारम्भी, सम्यग्ज्ञान में प्रीति परायण मन वाला और सर्वत्र उपयोग में तत्पर जीव में निश्चय सम्पूर्ण अहिंसा होती है । इसी कारण से ही आरम्भ में रक्त दोषित आदि पिण्ड को भोगने वाला घरवास का रागी, शाता, रस और ऋद्धि इन तीन गारव में आसक्ति वाला, स्वच्छन्दी, गाँव कुल आदि में ममत्व रखने वाला और अज्ञानी जीवों में गधे के मस्तक पर जैसे सींग नहीं होता वैसे उसमें अहिंसा नहीं होती है । अत: ज्ञानदान, दीक्षा, दुष्कर तप, त्याग, सद्गुरु की सेवा एवं योगाभ्यास इन सबका सार एक ही अहिंसा है । हिंसक को परलोक में अल्पायुष्य, अनारोग्य, दुर्भाग्य दुष्ट - खराब रूप वाला, दरिद्रता और अशुभ वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श का योग होता है । इसलिए इस लोक-परलोक में दुःख को नहीं चाहने वाले मुनि को सदा जीव दया में उपयोग रखना चाहिए जो कोई भी प्रशस्त, सुख, प्रभुता और जो स्वभाव से सुन्दर आरोग्य, सौभाग्य आदि प्राप्त करता है वह सब उस अहिंसा का फल है ।
२. असत्य त्याग व्रत : - हे क्षपक मुनि ! चार प्रकार के असत्य वचन का प्रयत्नपूर्वक त्याग कर । क्योंकि संयम वालों को भी भाषा दोष से कर्म का बन्धन होता है । सद्भूत पदार्थों का निषेध करना, जैसे कि - जीव नहीं है, वह प्रथम असत्य है, दूसरा असत्य असद्भूत कथन करना, जैसे कि - जीव पाँच भूत से बना है और कुछ भी नहीं है । तीसरा असत्य वचन जैसे जीव को एकांत