Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Padmvijay
Publisher: NIrgranth Sahitya Prakashan Sangh

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Page 496
________________ श्री संवेगरंगशाला ४७३ दुःख मुक्ति का मूल कारण कहा है। हे राजन् ! तेरी प्रभु के चरण कमल की वन्दन क्रिया से मैं प्रसन्न हुआ हूँ, इसलिए अब मेरे प्रभाव से शीघ्र शत्रु के सामने जय को प्राप्त करेगा । ऐसा देव का वचन सुनकर प्रसन्न मुख कमल वाले राजा सैना के साथ जल्दी शत्रु की ओर वापिस चला, फिर अनेक युद्धों में विजय करने वाला, अभिमान वाला महेन्द्र सिंह उसे आते सुनकर तैयार होकर सामने खड़ा हुआ और दोनों का युद्ध हुआ केवल विद्युतप्रभ के प्रभाव से मिथिलापति ने प्रारम्भ में ही महेन्द्र सिंह को हरा दिया और उसने पहले हाथी, घोड़े आदि राज्य के विविध अंग को ग्रहण किया था उसे वापिस लिया और उसे आज्ञा पालन करवा कर राज्य का सार सम्भाल का कार्य उसे रख दिया। फिर विजय करने योग्य शत्रु को जीत कर कनकरथ अपने नगर में आया और जगत में शरद चन्द्र की किरण समान उज्जवल कीर्ति वाला प्रसिद्ध हुआ । एक दिन विशुद्ध लेश्या में वर्तन करते वह विचार करने लगा कि - अहो ! श्री जिनेश्वर भगवान की महिमा कैसी है कि जिसके वन्दन मात्र से ही मैंने मनोरथ को भी आगोचर - कल्पना में भी नहीं आए, ऐसा अत्यन्त वांछित प्रयोजन को लीला मात्र से अनायास से प्राप्त किया है । इसलिए जगत में एक प्रभु इस जन्म और पर जन्म में भावी कल्याण करने वाला सहज स्वभाव वाला परम परमात्मा और श्रेष्ठ कल्प वृक्ष समान उनकी सेवा करने योग्य है । ऐसा चिंतन करके राजा ने श्री मुनि सुव्रत प्रभु के चरण कमल में दीक्षा स्वीकार की । फिर उसे विविध पूर्वक पालन किया, इससे गुण गण का निधान समान गणधर नामगोत्र का बन्धन किया, अन्त में मरकर देदीप्यमान शरीर वाला महर्द्धिक देवता बना वहाँ से आयुष्य पूर्णकर उत्तम कुल में मनुष्यत्व और उत्तम भोगों को प्राप्त कर श्री तीर्थंकर देव के पास दोक्षा लेकर गणधर बन कर संसार रूपी महावृक्ष को मूल से उखाड़ कर केवल ज्ञान के प्रकाश को प्राप्त किया और उन्होंने जन्म, मरण से रहित परम निर्वाण पद को प्राप्त करेगा । इस तरह श्री अरिहन्त परमात्मा आदि की भक्ति इस तरह उत्तरोत्तर कल्याणकारी जानकर हे क्षपक मुनि ! तू सम्यक् रूप उस भक्ति का आचरण कर । श्री अरिहन्तादि छह की भक्ति यह सातवाँ द्वार मैंने कहा है, अब आठवाँ पन्च नमस्कार नामक अन्तर द्वार कहते हैं । आठवाँ पन्च नमस्कार द्वार : - हे महामुनि क्षपक ! समाधि युक्त और कुविकल्प रहित तूने प्रारम्भ किया, विशुद्ध धर्म का अनुबन्ध (परम्परा) हो इस तरह अब बन्धु समान श्री जिनेश्वर तथा सर्वसिद्धा, आचार का पालन

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