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श्री संवेगरंगशाला
है, भागता है, छुप जाता है, और देखता है, उस तरह माँस की आसक्ति वाला आवेश वश बना हुआ बध करने वाला भी उसे विश्वास प्राप्त करवाने के लिए, ठगने के लिए, पकड़ने और मारने आदि के उपायों को जिस तरह चिन्तन करता है, उस तरह एकेन्द्रिय को मारने में नहीं होता है । अत: जहाँ जहाँ मरने वाले को बहुत दुःख होता है, और जहाँ-जहाँ मारने वाले में दुष्ट अभिप्राय होता है वही हिंसा में अनेक दोष लगते हैं । और त्रास जीवों में ऐसा स्पष्ट दिखता है इसलिए उसके अंग को ही मांस कहा है और उसे ही निषेध किया है । उस पंचेन्द्रिय से विपरीत लक्षण होने से बहुत जीव होने पर मूंग आदि में मांस नहीं है और लोक में भी वह अति प्रसिद्ध होने से दुष्ट नहीं है । और इस तरह केवल जीव अंग रूप होने से ही यह अभक्ष्य नहीं है, किन्तु उसमें उत्पन्न होते अन्य भी बहुत जीव होने से वह अभक्ष्य है, क्योंकि कहा है - ' कच्चे पक्के हुये, और पकाते प्रत्येक मांस की पेशी में निगोद जीवों का हमेशा अत्यधिक उत्पन्न होते हैं ।'
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और कई मूढ़ बुद्धि वाले पाँच मूंग खाने से पंचेन्द्रिय का भक्षण मानते हैं, उसका कहना बराबर नहीं है वह मोह का अज्ञान वचन है । जैसे तन्तु परस्पर सापेक्षता से पट रूप बनता है, और पुनः बहुत तन्तु होने पर भी निरपेक्षता (अलग रहने) से पटरूप नहीं होता है। इस तरह परस्पर सापेक्ष भाव वाली और स्व विषय को ग्रहण करने में तत्पर पाँच इन्द्रियों का एक शरीर में मिलने से वह पंचेन्द्रिय बनता है । सुख दुःख का अनुभव कराने वाले विज्ञान का प्रकर्ष भी वही होता है । जब प्रत्येक भिन्न-भिन्न इन्द्रिय वाले अनेक भी मूंग आदि में उस संवेदना का प्रकर्ष नहीं होता है। इस तरह अत्यन्त अव्यक्त केवल एक स्पर्शनेन्द्रिय के ज्ञान के आश्रित बहुत भी मूंग आदि में पंचेन्द्रिय रूप अयोग्य है । लौकिक शास्त्रों में ऊपर कहे अनुसार मांस को निषेधकर पुन: उसी शास्त्र में आपत्ति अथवा श्राद्ध आदि में उसकी अनुज्ञा दी है - वहाँ इस प्रकार कहा है कि - वेद मन्त्र से मन्त्रित मांस को ब्राह्मण की इच्छा से अर्थात् खाने वाले ब्राह्मण की अनुमति से शास्त्रोक्त विधि अनुसार गुरु ने जिसको यज्ञ क्रिया में नियुक्त किया हो, उस यज्ञ विधि को कराने वाले को खाना चाहिए, अथवा जब प्राण का नाश होता हो तभी खा लेना चाहिये । विधिपूर्वक यज्ञ क्रिया में नियुक्त किये जो ब्राह्मण उस मांस को नहीं खाता है वह मरकर इक्कीस जन्म तक पशु योनि को प्राप्त करता है । इस तरह अनुज्ञा की फिर भी इस माँस का त्याग करना ही श्रेष्ठकर है, क्योंकि उस शास्त्र में भी इस प्रकार से कहा है कि - आपत्ति में और श्राद्ध में भी जो