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श्री संवेगरंगशाला
जिनेश्वर से कथित शास्त्र में सम्यग्दृष्टि ज्ञानियों ने देखा है । और जितने प्रमाण में यह प्रतिबन्ध हो उतने दुःख जीवों को होते हैं इसलिए इसको सर्वथा त्याग करना श्रेष्ठ है । इसका त्याग नहीं करने से अनर्थ की परम्परा का त्याग नहीं होता है और यदि उस प्रतिबन्ध को त्याग करता है वह अनर्थ की परम्परा का भी अत्यन्त त्याग होता है । हा ! प्रतिबन्ध भी कर सकता है। यदि उसके विषयभूत वस्तुओं में कुछ भी श्रेष्ठता हो ! यदि उसमें श्रेष्ठता नहीं है तो उसे करने से क्या प्रयोजन है ? संसार में उत्पन्न होती वस्तुएं, जो क्षण-क्षण में नाशवन्त हैं, स्वभाव से ही असार है और स्वभाव ही तुच्छ है, तो उसमें कौन सी अच्छाई को कहना ? क्योंकि काया हाथी के कान समान चंचल है, रूप भी क्षण विनश्वर स्वरूप है, यौवन भी परिमित काल का है, लावण्य परिणाम से कुरूपता को देने वाला है । सौभाग्य भी निश्चय नाश होता है, इन्द्रियाँ भी विकलता को प्राप्त करती हैं । सरसों के दाने जितना सुख प्राप्त कर मेरू पर्वत जितना कठोर दुःखों के समूह से घिरा जाता है, बल चपलता को प्राप्त कर नष्ट हो जाता है यह जीवन भी जल कल्लोल समान क्षणिक है, प्रेम स्वप्न समान मिथ्या है, और लक्ष्मी छाया समान है । भोग इन्द्र धनुष्य समान चपल है, सारे संयोग अग्नि शिखा समान हैं और अन्य भी कोई वस्तु ऐसी नहीं है कि जो स्वभाव से शाश्वत हो ।
इस तरह सारी संसार जन्य वस्तुओं में सुख के लिए प्रतिबन्ध करता है तो सुन्दर ! वह अन्त में दुःख रूप बनेगा । और तू निश्चय स्वजनों के साथ जन्मा नहीं है, और उसके साथ मरने वाला भी नहीं है, तो हे सुन्दर ! उनके साथ भी प्रतिबन्ध करने से क्या लाभ है ? यदि संसार समुद्र में जीव कर्मरूपी बड़ी-बड़ी तरंगों के वेग से इधर उधर भटकते संयोग-वियोग को प्राप्त करता है, तो कौन किसका स्वजन है ? बार-बार जन्म, मरण रूप इस संसार में चिर काल से भ्रमण करते कोई ऐसा जीव नहीं है कि जो परस्पर अनेक बार स्वजन नहीं हुए हो ? जिसे छोड़कर जाना है वह वस्तु आत्मीय कैसे बन सकती है ? ऐसा विचार कर ज्ञानी शरीर में प्रतिबन्ध का त्याग करते हैं । विविध उपचार सेवा करने पर भी चिरकाल तक सम्भाल कर रखा शरीर भी यदि अन्त में नाश दिखता है तो शेष पदार्थों में क्या आशा रखे ? प्रतिबन्ध बुद्धि को नाश करने वाला, अत्यन्त कठोर बन्धन है और संसार के सर्व दोषों का समूह है, इसलिए हे धीर ! प्रतिबन्ध को छोड़ दो ! पुनः हे महाशय ! यदि तू सर्वथा इसे छोड़ने में शक्तिमान नहीं हो तो अति प्रशस्त वस्तु में प्रतिबन्ध को कर । क्योंकि तीर्थंकर में प्रतिबन्ध और सुविहित मुनिजन