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श्री संवेगरंगशाला
अनुष्ठान वाला तू श्री जैन शासन में धर्मानुराग अर्थात् उसमें हमेशा सद्भाव, प्रेम, सद्गुण और धर्म के अनुराग से उन्मय होता है । सब गुणों में मुख्य इस सम्यक्त्व महारत्न को प्राप्त करने से इस जगत में कोई अपूर्व प्रभाव हो जाता है। क्योंकि कहा है कि-जिसको मेरूपर्वत के समान निश्चल और शंकादि दोषों से रहित यह सम्यक्त्व एक दिन का भी प्रगट हो जाये तो वह आत्मा नरक, तिर्यंच में नहीं गिरता है । चारित्र से भ्रष्ट वह भ्रष्ट नहीं है, परन्तु जो सम्यक्त्व से भ्रष्ट है वही भ्रष्ट है, सम्यक्त्व से नहीं गिरने वाला संसार में परिभ्रमण नहीं करता है । अविरति वाला भी शुद्ध सम्यक्त्व होने से श्री तीर्थकर नाम कर्म का बन्धन करता है। जैसे कि हरिकुल के स्वामी श्रीकृष्ण महाराजा और श्रेणिक महाराजा विरति के अभाव में भी भविष्य काल में कल्याणकर तीर्थंकर होंगे। विशुद्ध सम्यक्त्व वाला जीव कल्याण की परम्परा को प्राप्त करता है। सम्यक्त्व महारत्न इतना मूल्यवान है कि देव-दानव से युक्त तीनों लोक भी प्राप्त नहीं करता है । अरघट्ट यन्त्र समान इस संसार में कौन जन्म नहीं लेता, परन्तु तत्त्व से जगत में वही जन्म लेता है कि जिसने इस संसार में सम्यक्त्व रत्न को प्राप्त किया है । अर्थात् उसका ही जन्म सफल है । हे सुन्दर मुनि ! चिन्तामणी और कल्पवृक्ष को भी जीतने वाला सम्यक्त्व को प्राप्त करके उसमें तुझ रक्षा का प्रयत्न छोड़ना योग्य नहीं है । इस दुस्तर भव समुद्र में जो समकित रूप नाव को नहीं प्राप्त करता है वह डूबता है, डूबा है और डबेगा। और सम्यक्त्व रूपी नाव को प्राप्त कर भव्यात्मा दुस्तर भी संसार समुद्र को अल्पकाल में तर जाता है, तरता है और तरेगा। इसलिए हे धीर साधु । जिसकी प्राप्ति के मनोहर भी दुर्लभ हैं उस सम्यक्त्व को प्राप्त कर आराधना में स्थिर तू मन वाला हो और प्रमाद को नहीं करना । अन्यथा प्रमाद में गिरे हुये तेरी यह प्रस्तुत आराधना निश्चय मार्ग से भ्रष्ट हुई नाव के समान 'तड़, तड़' आवाज करते टूट जायेगी। इस तरह सम्यक्त्व नाम का छठा अन्तर द्वार कहा है। अब श्री अरिहंत आदि छह की भक्ति का सातवाँ अन्तर द्वार कहते
सातवाँ श्री अरिहंतादि छह भक्ति द्वार :-श्री अरिहंत, सिद्ध, चैत्य, आचार्य, उपाध्याय और साधु । ये छह को मोक्ष नगर के मार्ग में सार्थवाह(मददगार) रूप मानकर, हे क्षपक मुनि ! प्रस्तुत अर्थ-आराधना की निर्विघ्न सिद्धि के लिए उनको तेरे हर्ष के उत्कण्ठा से विकसित हृदय कमल में भक्तिपूर्वक सम्यक् रूप धारण कर । केवल एक श्री जैन भक्ति भी दुर्गति को रोक कर दुर्लभ मुक्ति पर्यंत के सुखों को उत्तरोत्तर प्राप्त कराने में समर्थ है, फिर