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श्री संवेगरंगशाला पकड़ने के उपाय का चिन्तन करता था। इतने में कहीं से आवाज करता हुआ एक परिव्राजक सन्यासी वहाँ आया और उस वृक्ष की शाखा तोड़कर उसका आसन बनाकर बैठा। पिंडली को बाँधकर बैठा हुआ ताड़ जैसी लम्बी जंघा वाला और क्रूर नेत्र वाले उसे देखकर अगङदत्त ने विचार किया कि यह चोर है। इतने में उसे उस परिव्राजक ने कहा कि-हे वत्स ! तू कहाँ से आया है ? और किस कारण से भ्रमण करता है ? उसने कहा कि-हे भगवन्त् ! उज्जैन से आया हूँ और निर्धन वाला हूँ, इस कारण से भटक रहा हूँ मुझे आजीविका का कोई उपाय नहीं है। परिव्राजक ने कहा पुत्र ! यदि ऐसा ही है तो मैं तुझे धन दूंगा। अगङदत्त ने कहा-हे स्वामी ! आपने मेरे ऊपर महाकृपा की। इतने में सूर्य का अस्त हो गया और परिव्राजक को अकार्य करने की इच्छा के समान संध्या भी सर्वत्र फैल गई। वह संध्या पूर्ण होते ही अन्धकार का समूह फैल गया तब त्रिदण्ड में से तीक्ष्ण धार वाली तलवार खींचकर शस्त्रादि से तैयार हुआ, और शीघ्र अगङदत्त के साथ ही नगरी में गया तथा एक धनिक के घर में सेंध गिराया वहाँ से बहुत वस्तुयें भर कर पेटियाँ बाहर निकालीं और अगङदत्त को वहीं रखकर वह परिव्राजक देव भवन में सोये हुए मनुष्यों को उठाकर उनको धन का लालच देकर वहाँ लाया। उन पेटियों को उनके द्वारा उठवा कर उनके साथ नगर में से शीघ्र ही निकल गया और जीर्ण उद्यान में पहुँचा। वहाँ उसने उन पुरुषों को और अगङदत्त को स्नेहपूर्वक कहा कि-हे पुत्रों ! जब तक रात्री कुछ कम नहीं होती तब तक थोड़े समय यहीं सो जाओ। सभी ने स्वीकार किया और सभी गाढ़ निद्रा में सो गये। केवल मन में शंका वाला अगङदत्त कपट निद्रा एक क्षण कर, वहाँ से निकलकर वृक्षों के समूह में छुप गया। सभी पुरुषों को निद्राधीन जानकर परिव्राजक ने मार दिया और अगङदत्त को भी मारने के लिए उसके स्थान पर गया, परन्तु वहाँ नहीं मिलने से वह वन की घटा में उसे खोजने लगा, तब सामने आते उस पर अगङदत्त ने तलवार से प्रहार किया। फिर प्रहार की तीव्र वेदना से दुःखी शरीर वाले उसने कहा कि-हे पुत्र ! अब मेरा जीवन प्रायः कर पूर्ण हो गया है, इससे मेरी तलवार को तू स्वीकार कर और श्मशान के पीछे के भाग में जाओ। वहाँ चण्डी का मन्दिर की दीवार के पास खड़े होकर तू आवाज देना, जिससे उसके भौंरे में से मेरी बहन निकलेगी। उसे यह तलवार दिखाना जिससे वह तेरी पत्नी बनेगी और तुझे घर की लक्ष्मी बतायेगी।