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श्री संवेगरंगशाला
४५६ स्त्री कथा के दोष :-स्त्री कथा करने से अपने को और पर को अत्यन्त मोह की उदीरणा होती है और उदीरित मोह वाला लज्जा-मर्यादा को दूर फेंककर मन में क्या-क्या अशुभ चिंतन नहीं करता ? वाणी द्वारा क्याक्या अशुभ नहीं बोलता ? काया द्वारा क्या-क्या अशुभ कार्य नहीं करता ? और इस प्रकार यदि करे तो शासन का मखौल होता है। क्योंकि स्त्री कथा कहने वाले, सुनने वाले और देखकर चतुर लोग उसके वचन और आकृति से 'यह स्वयं ऐसा ही होगा' ऐसा मानते हैं। क्योंकि --पण्डितजनों से युक्त गाँव में किसी समय उसके वक्र वचनों को, किसी समय उसके कटाक्षों को और उसके भाव को भी लोग जानते हैं और इस तरह दूसरों को कहते हैं । अन्तर के भाव ऐसे हैं तो उस तुच्छ के ब्रह्मव्रत में भी निश्चय पतित होगा ऐसी कल्पना करते हैं। और व्रत के रक्षण से गिरा हआ पुनः वह चिंतन करे कि 'ऐसे भी साधुता नहीं है तो अब वह अपना इच्छित अब्रह्म को करना अच्छा है'। ऐसा विचार करके वह मूढ़ात्मा प्रमाद-अब्रह्म को सेवन करता है परन्तु हे भाई ! इस दुषमा काल में दु:ख पूर्वक जीता है और अब्रह्म के फल स्वरूप अठारह पाप स्थानों का विचार करता है। इस तरह स्त्री कथा के दोष जानना । अथवा अन्य ग्रन्थ में इस चार गाथा द्वारा क्रमशः चार विकथा के दोष कहते हैं। स्त्री कथा से स्वपर मोह का उदय प्रवचन का उपहास्य, सूत्र आदि जो प्राप्ति हई थी उसकी हानि, परिचय दोष से ब्रह्मचर्य में अगुप्ति, मैथुन सेवन आदि दोष लगते हैं । भक्त कथा से भोजन किए बिना भी गृद्धि होते ही अंगार दोष, इन्द्रियों की निरंकुशता, और परिताप से उसे बुलाने का आदेश देना इत्यादि दोष होते हैं। देश कथा से-राग द्वेष की उत्पत्ति, स्व पर पक्ष से परस्पर युद्ध और यह देश बहुत गुण कारक है ऐसा सुनकर अन्य वहाँ जाए इत्यादि दोष लगते हैं। राज कथा से—यह कोई चोर गुप्तचर या घातक है, ऐसी कल्पना से राजपुरुष आदि को मारने की इच्छा, शंकाशील बने अथवा स्वयं चोरी आदि करने की इच्छा करे, अथवा भक्त कथा आदि को सुनकर स्वयं भोगी हुई या नहीं भोगी हुई उस वस्तु की अभिलाषा करे। तथा जो मनुष्य जिस कथा को कहे वह वैसा परिणाम से युक्त बनता है, इसलिए उसे कुछ विशेषतापूर्वक कहता है कथा कहकर प्रायःकर चंचल चित्त वाला बनता है और चंचल चित्त बना हुआ पुरुष प्रस्तुत वस्तु होने पर अथवा नहीं होने पर भी गुण दोष का अलाप करता है, इससे उसका सत्यवादी जीवन नहीं होता है। और अपने अनुकूल पदार्थ में प्रकर्ष का आरोप राग से होता है तथा प्रतिपक्ष में गुणों के अपकर्ष द्वेष से होता है इस तरह उसमें रागी