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श्री संवेगरंगशाला तरह असन्तोष-आसक्ति बढ़ जाने से निर्लज्ज बन जाता है, फिर अकार्य करने की इच्छा वाला बनता है और अंगीकार किये व्रत्त, नियम आदि सुकृत कार्यों से मुक्त बनकर वह पापी शीघ्र उस विषय सेवन को करता है। स्वयं चारों तरफ से डरता विषयासक्त पुरुष, चारों तरफ से डरती स्त्री के साथ जब गुप्त रीत से विषय क्रीड़ा को करता है, तब भी भयभीत युक्त यदि वह सुखी हो तो इस विश्व में दुःखी कौन है ?
विषयाधीन मनुष्य दुर्लभ चारित्र रत्न को किसी समय केवल एक बार ही खण्डित करके भी जिन्दगी तक सारे लोक में तिरस्कार का पात्र बनता है। केवल प्रारम्भ में कुछ अल्प सुख देने वाला है, परन्तु भविष्य में अनेक जन्मों का निमित्त होने से सत्पुरुषों को सेवन करने के समय भी विषय दुःखदायक होता है। हा ! धिक्कार है ! कि सड़ा हआ, वीभत्स और दुर्गच्छापात्र स्त्री के गुप्त अंग में कृमि जीव के समान दुःख को भी सुख मानता जीव खुश रहता है। फिर उस विषय के लिए आरम्भ और महा परिग्रहमय बनकर जीव सैंकड़ों दुःखों का कारणभूत अनेक प्रकार के पाप का बन्धन भी करता है। इससे अनेकशः नरक की वेदनाओं को और तिर्यंच गतियों के दुःखों को प्राप्त करता है। इस तरह विषय बुखार रोग वाले जीव को शीखण्ड-दही पदार्थ आदि का पान करने समान है। यदि विषयों से कुछ भी गुण होता तो निश्चय ही श्री जैनेश्वर, चक्रवर्ती और बलदेव इस तरह विषय सुख को सर्वथा छोड़कर धर्मरूपी उद्यान में क्रीड़ा नहीं करते। इसलिए हे देवानु प्रिय ! तू इस प्रकार प्रयत्नपूर्वक विचार कर विषय के अल्पमात्र सूख को छोड़ दे और प्रशम रस का अपरिमित सुख का भोग कर। क्योंकि प्रशम रस का सुख क्लेश बिना का साध्य है, इसमें कोई लज्जा का कारण नहीं है, परिणाम से सुन्दर और इस विषय सुख से अनन्तानन्त गुण वाला है। इसलिए अत्यन्त कृतार्थ इस प्रशम रस में ही गाढ़ राग मन वाले, धीर और नित्य परमार्थ के साधक, उन साधुओं को ही धन्य है कि जिन्होंने संसार का हमेशा मृत्यु के संताप से भयंकर जानकर विष समान विषय सुख को अत्यन्त त्याग किया है । विषयों की आशा से बद्ध चित्त वाला जीव विषय सुख की प्राप्ति बिना भी कंडरीक के समान अवश्य घोर संसार में भटकता है । वह इस प्रकार है :
कंडरीक की कथा पुंडरीकिणी नगरी में प्रचंड भुजादंड से शत्रुओं का पराभव करने वाला फिर भी श्री जिनेश्वर के धर्म में एक दृढ़रागी पुंडरीक नामक राजा था। सद्गुरु के पास राज लक्ष्मी को बिजली के प्रकाश के समान नाशवंत, जीवन