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श्री संवेगरंगशाला
४२५ और विविध प्रकार के अति उग्र तप को करने लगे। इस समय का वररूचि का नाश आदि शेष वर्णन अन्य सूत्र में से जान लेना। आर्य स्थूल भद्र पढ़ने के लिए आर्य भद्र बाह स्वामी के पास गया और वह न्यून दस पूर्व को पढे, फिर विद्या गुरू श्री भद्र बाहु स्वामी के साथ विहार करते पाटलीपुत्र नगर पधारे। वहाँ दीक्षित हुई यक्षा आदि सात बहनें भाई को वन्दन करने के लिए आईं। आचार्य को वन्दन करके उन्होंने पूछा कि-हमारा बड़ा भाई कहाँ है ? आचार्य श्री ने कहा कि-सूत्र का परावर्तन करने के लिये देव कूलिका में बैठे हैं । अतः वे वहाँ गईं और उनको आते देखकर अपनी ज्ञान लक्ष्मी को दिखाने के लिए स्थूल भद्र मुनि ने केसरी सिंह का रूप बनाया। उसे देखकर भयभीत होकर भागकर साध्वी ने आचार्य श्री से निवेदन किया कि-भगवन्त ! सिंह ने बड़े भाई का भक्षण किया है। श्रुत के उपयोग वाले आचार्य श्री ने कहा कि वह सिंह नहीं है, स्थूल भद्र है, अब जाओ। इससे वे गईं और स्थूल भद्र मुनि को वन्दन किया। और एक क्षण खड़ी होकर विहार संयम आदि की बातें पूछकर स्व स्थान पर गईं। फिर दूसरे दिन सूत्र का नया अध्ययन करने के लिए स्थूल भद्र मुनि आर्य भद्र बाहु स्वामी के पास आए, तब उन्होंने 'तू अयोग्य है' ऐसा कहकर पढ़ाने का निषेध किया। इससे उस स्थूल भद्र ने सिंह रूप बनाने का अपना दोष जानकर सूरि जी को कहा कि-हे भगवन्त ! पुनः ऐसा नहीं करूंगा, मेरे इस अपराध को क्षमा करो। और महाकष्ट से अति विनती करने पर सूरि जी ने पढ़ाने का स्वीकार किया और कहा कि केवल अन्तिम चार पूर्वो का अध्ययन करवाऊँगा, उसे पढ़, परन्तु दूसरे को तूने पढ़ाना नहीं। इससे वह चार पूर्व उसके बाद विच्छेद हो गये । इसलिये अनर्थ कारक श्रुतमद करना वह उत्तम मुनियों के योग्य नहीं है । अतः हे क्षपक मुनि ! तू उसे त्याग कर अनशन के कार्य में सम्यग् उद्यम कर। इस तरह पाँचवां श्रुतमद स्थान को कहा है। अब तप के मद को निषेध करने वाला छठा मद स्थान संक्षेप में कहता हूँ।
६. तपमद द्वार :-'मैं ही दुष्कर तपस्वी हूँ' इस तरह मद करते मूर्ख चिरकाल किया हुआ उग्र तप को भी निष्फल करता है । बाँस में से उत्पन्न हुई अग्नि के समान तप से उत्पन्न हुई मद अग्नि के समान शेष गुण रूपी वृक्षों के समूह अपने स्थान को क्या नहीं जलाता ? अर्थात् तपमद से गुणों को जला देता है, शेष सब अनुष्ठानों में तप को ही दुष्कर कहा है, उस तप को भी मद से मनुष्य गंवा देता है, वस्तुतः मोह की महिमा महान् है। और अज्ञान वृत्ति से कोई बदला लेने की इच्छा बिना, बल-वीर्य को अल्प भी छुपाए