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श्री संवेगरंगशाला
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११. द्वेष पाप स्थानक द्वार:-अत्यन्त क्रोध और मान से उत्पन्न हुआ अशुभ आत्म परिणाम को यहाँ द्वेष कहा है । क्योंकि इससे स्व पर मनुष्यों का द्वेष होता है । द्वेष अनर्थ का घर है, द्वेष भय, कलह और दुःख का भण्डार है, द्वेष कार्य का घातक है और द्वेष अन्याय का भण्डार है। द्वेष अशांति को करने वाला है, प्रेमी और मित्रों का द्रोह करने वाला है, स्व और पर उभय को सन्ताप करने वाला है और गुणों का विनाशक है। द्वेष से युक्त पुरुष दूसरे के गुणों को दोष रूप में निन्दा करता है और द्वेष से कलुषित मन वाला ही तुच्छ प्रकृति को धारण करता है, तुच्छ प्रकृति वाले को अन्य मनुष्य उसके विषय में भो जो-जो प्रवृत्ति करता है वह उसे निश्चय अपने विषय में मानता है और मूढ़ इस तरह से दुःखी होता है । दूसरे से कहे हुए धर्मोपदेश रूप रति के हेतु को भी वह जड़ात्मा पित्त से पीड़ित रोगी के समान मधुर मिश्रित दूध को दूषित मानता है वैसे वह दूषित मानता है, इसलिए यदि रति का स्थान भी जिसके दोष से खेद का कारण बनता है उस पापी द्वेष को अवकाश देना योग्य नहीं है। निर्भागी द्वेष के पूर्व में जितने दोष कहे हैं, वह सुविशुद्ध प्रशम वाले को उतने ही गुण बनते हैं । द्वेष रूपी दावानल के योग से बार-बार जलता है, वह चित्त समाधि रूप बन समता रूपी जल के बरसात से अवश्य पुनः नया संजीवन होता है। यहाँ पर द्वेष रूप पाप स्थानक से धर्मरूचि अणगार ने चारित्र अशुद्ध कहा है और फिर संवेग को प्राप्त करके उस जीवन को ही उसने शुद्ध किया है, वह इस प्रकार से है :
धर्मरूचि की कथा गंगा नामक महानदी में नन्द नामक नाविक बहत लोगों से मूल्य लेकर पार उतारता था। एक समय अनेक लब्धि वाले धर्मरूचि नाम के मुनिराज नाव से गंगा नदी पार उतरे, परन्तु उनको नन्द ने किराये के लिये नदी किनारे रोका । भिक्षा का समय भी चला गया और सूर्य के किरणों से अति उष्ण रेती में गरमी के कारण से वे अति दुःखी हुए फिर भी उसे मुक्त नहीं किया, इससे क्रोधित हुए उस मुनि ने दृष्टि रूपी ज्वाला से उसे भस्मसात् करके अन्यत्र गये। नाविक एक सभा स्यान में घरवासी कोयल बना। साधु ने भी विचरते गाँव से आहार पानी लेकर भोजन करने के लिए उसी सभा में प्रवेश किया। उसे देखकर पूर्व के दृढ़ वैर से अति तीव्र क्रोध उत्पन्न हुआ। उसके भोजन प्रारम्भ करते उस साधु के ऊपर ऊंचे स्थान से कचरे को फेंकने लगी। इससे उस स्थान को छोड़कर मुनि अन्य स्थान पर बैठे, वहाँ भी वह