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श्री संवेगरंगशाला बारह वर्ष रोका। इस तरह अड़तालीस वर्ष व्यतीत हो गये, फिर भी नहीं रुकने से उसकी माता ने उपेक्षा की केवल पूर्व संभालकर रखी, उसके पिता के नाम की अंगूठी और रत्न कम्बल उसे देकर कहा कि-हे पुत्र ! इधर-उधर कहीं पर नहीं जाना, परन्तु पुंडरिक राजा तेरे पिता के बड़े भाई हैं उसे यह तेरे पिता की नाम वाली अंगूठी दिखाना कि जिससे वह तुझे जानकर अवश्य राज्य देंगे। इसे स्वीकार कर क्षुल्लक कुमार मुनि वहाँ से निकल गया और कालक्रम से साकेत पुर में पहुँचा।
उस समय राजा के महल पर आश्चर्यभूत नाटक चल रहा था, इससे 'राजा का दर्शन फिर करूंगा' ऐसा सोचकर वहीं बैठकर वह एकाग्रता से नाटक को देखने लगा और नटी समग्र रात नाचती रही, अतः अत्यन्त थक जाने से नींद आते नटी को विविध करणों के प्रयोग से मनोहर बने नाटक के रंग में भंग पड़ने से भय से अक्का ने प्रभात काल में गीत गाकर सहसा इस प्रकार समझाती है "हे श्याम सुन्दरी ! तूने सुन्दर गाया है, सुन्दर बजाया है, और सुन्दर नृत्य किया है । इस तरह लम्बी रात्री तक नृत्य कला बतलाई है, अब रात्री के स्वप्न के अन्त में प्रमाद मत कर।" यह सुनकर क्षुल्लक मुनि ने उसको रत्न कम्बल भेंट किया। राजा के पुत्र ने कुण्डल रत्न दिया, श्रीकान्त नाम की सार्थवाह की पत्नी ने हार दिया, मंत्री जयसंघी ने रत्न जड़ित सुवर्णमय कड़ा अर्पण किया और महाव्रत ने रत्न का अंकुरा भेंट किया, उन सबका एक-एक लाख मूल्य था।
___ इन सबका रहस्य जानने के लिये राजा ने पहले ही क्षल्लक को पूछा कि तूने यह कैसे दिया ? इससे उसने मूल से ही अपना सारा वृत्तान्त सुनाकर कहा कि मैं यहाँ राज्य के लिये आया हूँ, परन्तु गीत सुनकर बोध हुआ है और अब विषय की इच्छा रहित हुआ हैं तथा दीक्षा में स्थिर चित्त वाला बना हूँ। इसलिए 'यह गुरू है' ऐसा मानकर इसको रत्न कम्बल दिया है। फिर उसे पहचान कर राजा ने कहा कि हे पुत्र ! यह राज्य स्वीकार कर, तब क्षुल्लक ने उत्तर दिया कि-शेष आयुष्य में अब चिरकालिक संयम को निष्फल करने वाले इस राज्य से क्या लाभ है ? इसके बाद राजा ने पुत्र आदि को पूछा कि-तुम्हें दान देने में क्या कारण है ? तब राजपुत्र ने कहा कि-'हे तात् ! आपको मारकर मुझे राज्य लेने की इच्छा थी' परन्तु मुझे यह गीत सुनकर राज्य से वैराग्य हुआ है, तथा सार्थवाह पत्नी ने कहा कि-मेरे पति को परदेश गये बारह वर्ष व्यतीत हो गये हैं, इसलिए मैंने विचार किया था