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श्री संवेगरंगशाला
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जगतगुरु का प्रत्यक्ष सूर्य समान भी प्रभु श्री वर्धमान स्वामी की विरोधी हुई । इस विषय पर अधिक क्या कहें। केवल संयम को विफल बनाकर जमाली मरकर लांक कल्प में किल्मिष देव हुआ । उसका वह चारित्र गुण, वह ज्ञान की उत्कृष्टता और उसका वह सुन्दर संयम जीवन सब एक साथ ही नाश हुआ । ऐसे मिथ्याभिमान को धिक्कार हो । हे सुन्दर ! जिस मिथ्यात्व के परदे से आच्छादित हुए जीव को उसी क्षण में वस्तु भी अवस्तु रूप दिखती है । यदि उसकी वह सम्यक्त्व आदि गुण रूप लक्ष्मी मिथ्यात्व के अंधकार से आच्छादित न हुई हो तो ऐसा नहीं होता है कि उसे क्या कितना हित हुआ ? इस प्रकार जानकर हे वत्स ! विवेकरूपी अमृत का पान करके तू मन रूपी शरीर में व्याप्त हुआ । इस मिथ्यात्व रूपी जहर का सर्वथा वमन कर ! तथा मिथ्यात्व के जहर से मुक्त और उसके सर्व विकार से रहित, स्वस्थ बना हुआ तू प्रस्तुत आराधना को सम्यक् रूप में प्राप्त कर । इस तरह यह मिथ्या दर्शन शल्य को कहा है और उसे कहने से सारे अठारह पाप स्थानक को कहा है । ये पाप स्थानक में एक-एक भी पाप महादुःखदायी है तो वे सभी के समूह से तो जो दुःखदायी बनता है उसमें क्या कहना
इस लोक के सुख में आसक्त जीव, जीव की हिंसा करने से, दूसरों को कठोर आदि झूठ बोल कर, दूसरे के धन को हरण कर, मनुष्य देव और तिर्यंच की स्त्रियों के विषय की अति आसक्ति द्वारा, नित्य अपरिमित विविध परिग्रह का आरम्भ करने से, विरोधजनक क्रोध द्वारा, तथा दुःख कारण मान द्वारा, स्पष्ट अपापरूप माया द्वारा, सुख अथवा शोभा का नाश करने वाला लोभ द्वारा, उत्तम मुनियों के द्वारा छोड़ा हुआ दुष्ट राग द्वारा, कुगति पोषक द्वेष द्वारा, स्नेह के शत्रु को कलह द्वारा, खल नीच अभ्याख्यान द्वारा, संसार की प्राप्ति करने वाली, अरति रति द्वारा, अपयश के महान प्रवाह रूप पर निंदा द्वारा, नीच अधम पुरुषों के मन को प्रसन्न करने वाला माया मृषावाद द्वारा और अत्यन्त संकलेश से प्रगट हुआ, शुद्ध मार्ग में विघ्न करने वाला महासुभट रूप मल्ल के समान मिथ्या दर्शन शल्य द्वारा परलोक की चिन्ता भय से रहित मूढात्मा अपने सुख के लिए मन, वचन और काया से कठोर पाप के समूह को उपार्जन करता है इससे चौरासी लाख योनि से व्याप्त अनादि भवसागर में बारबार जन्म-मरण करते चिरकाल तक परिभ्रमण करता है जो मूढात्मा अपने में अथवा दूसरे में भी इन पाप स्थानों को उत्पन्न करता है वह उस कारण से जो कर्म का बन्धन होता है उससे वह भी लिप्त होता है । इसलिए हे देवानु प्रिय ! इसे जानकर प्रयत्नशील तू-तू उस पापस्थानक से शीघ्र रूककर उसके