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श्री संवेगरंगशाला से रहित) होते हैं, परन्तु मुझे तो कुछ परिग्रह होगा। साधु शील से सुगन्ध वाले हैं, मैं तो शील से दुर्गन्ध वाला हूँ। साधु मोह रहित है, अतः मोह से आच्छादित मैं छत्र धारण करूँगा, साधु जूते रहित होते हैं मैं तो जूते रमूंगा। साधु श्वेत वस्त्र वाले शोभा रहित होते हैं, मेरे रंगीन वस्त्र हों, क्योंकिकषाय से कलुषित मति वाला मैं उसके योग्य हूँ। पापभीरू साधु अनेक जीवों से व्याप्त जल के आरम्भ का त्याग करते हैं, मुझे तो परिमित जल से स्नान और पान भी होगा। इस तरह उसने स्वच्छन्द बुद्धि से कल्पना कर विचित्र बहुत युक्तियों से संयुक्त, साधुओं से विलक्षण रूप वाला परिव्राजक वेश प्रवृत्ति की। परन्तु वह जैनेश्वर भगवान के साथ विहार करता था और भव्य जीवों को प्रतिबोध करके तीन जगत के एक गुरू श्री ऋषभ देव स्वामी को शिष्य रूप में अर्पण करता था।
__ एक दिन भरत महाराजा समव सरण में आया और श्री ऋषभ देव स्वामी का अत्यन्त वैभवशाली ऐश्वर्य देखकर पूछा कि-हे तात् ! आपके समान अरिहंत कितने होंगे? श्री जगत् गुरू ने कहा-अजितनाथ आदि जैनेश्वर होंगे और चक्रवर्ती वासुदेव तथा बलदेव भी होंगे। भरत ने फिर पूछाहे भगवन्त ! क्या यह आपकी देव, मनुष्य, असुर की इतनी विशाल पर्षदा में से इस भरत में कोई तीर्थंकर होगा ? तब प्रभु ने भरत को कहा-सिर के ऊपर छत्र धारण वाला एकान्त में बैठा मरिचि यह अन्तिम तीर्थंकर होगा। और यही मरिचि पोतानपुर के अन्दर वासुदेव में प्रथम होगा, विदेह में मूका नगरी में चक्रवर्ती की लक्ष्मी को भी यही प्राप्त करेगा। यह सुनकर हर्ष आवेश में फैलते गाढ़ रोमांच वाला भरत महाराजा प्रभु की आज्ञा लेकर मरिचि को वन्दन करने गया। परम भक्ति युक्त उसे तीन बार प्रदक्षिणा देकर, सम्यक् प्रकार से वन्दन करके मधुर भाषा में कहने लगा कि-हे महायश ! आप धन्य हो, आपने ही इस संसार में प्राप्त करने योग्य सर्व कुछ प्राप्त किया है, क्योंकि तुम वीर नाम के अन्तिम तीर्थंकर होंगे, वासुदेवों में प्रथम अर्द्ध भरत की पृथ्वी के नाथ होंगे और मूका नगरी में छह खण्ड पृथ्वी मण्डल का स्वामी चक्री होंगे। मैं मनोहर मानकर तुम्हारे इस जन्म को तथा परिव्राजक को वन्दन नहीं करता हूँ, परन्तु अन्तिम जैनेश्वर होंगे, इस कारण से नमस्कार करता हूँ। इत्यादि स्तुति करके जैसे आया था वैसे भरत वापिस चला गया।
उसके बाद गाढ़ हर्ष प्रगट हुआ, विकसित नीलकमल के पत्र समान नेत्र वाला मरिचि रंगभूमि में रहे मल्ल के समान तीन बार त्रिदण्ड को पछाड़ कर अपने उस विवेक को छोड़कर इस तरह बोलने लगा-"देखो वासुदेवों