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श्री संवेगरंगशाला क्षुल्लक कुमार मुनि के समान धर्म में अरति और अधर्म में रति, ये दोनों पुरुष को संसार में शोक के पात्र बना देता है । असंयम में अरति से संयम में रति से पुनः सम्यक् चेतना को प्राप्त कर वही मुनि जैसे पूज्य बना, वैसे संसार में पूज्य बनता है । वह इस तरह :
क्षुल्लक कुमार मुनि की कथा साकेत नामक श्रेष्ठ नगर में पुंडरिक नाम का राजा था, उसे कंडरिक नाम का छोटा भाई था। छोटे भाई की यशोभद्रा नाम की पत्नी थी। एक दिन अत्यन्त मनोहर अंग वाली घर के प्रांगण में घूमती हुई उसे पुंडरिक ने देखकर अत्यन्त आसक्त बना, उसने उसके पास दुती को भेजा और लज्जायुक्त बनी यशोभद्रा ने उसे निषेध किया। राजा ने फिर भेजा, बाद में राजा के अति आग्रह होने पर उसने उत्तर दिया कि क्या आपको छोटे भाई से भी लज्जा नहीं आती कि जिससे ऐसा बोल रहे हो ? अतः राजा ने कंडरिक को गुप्त रूप से मरवा दिया और फिर प्रार्थना की तब ब्रह्मचर्य खण्डन के भय से शीघ्र आभूषणों को लेकर वह राजमहल से निकल गई और एकाकी भी वृद्ध व्यापारी को पितृभाव को धारण कर उसके साथ श्रावस्ती नगर में पहुँच गई । वहाँ श्री जिनसेन सूरि की शिष्या कीर्तिमती नाम की महत्तरा साध्वी को वन्दन के लिए गई और वहाँ सारा वृत्तान्त कहा । साध्वी का उपदेश सुनकर उसे वैराग्य हुआ और दीक्षा स्वीकार की । परन्तु 'गर्भ की बात करूंगी तो मुझे दीक्षा नहीं देंगे' अतः अपने गर्भ की बात महत्तरा को नहीं कही। कालक्रम से गर्भ बढ़ने लगा, तब महत्तरा ने उससे एकान्त में कारण पूछा, तब उसने भी सारा सत्य निवेदन किया, फिर जब तक पुत्र का जन्म हो तब तक उसे गुप्त ही रखा। फिर उसके पुत्र का जन्म हुआ, श्रावक के घर बड़ा हुआ और बाद में आचार्य श्री के पास उसने दीक्षा ली, उसका नाम क्षुल्लक कुमार रखा और साधु के योग्य समग्र समाचारी को पढ़ाया, जब यौवन वय प्राप्त किया, उस समय संयम पालन करने के लिए असमर्थ बन गया। दीक्षा छोड़ने के परिणाम जागृत हुए और इसके लिए माता को पूछा। साध्वी माता ने अनेक प्रकार से उसे रोका, फिर भी नहीं रहा, तब माता ने फिर कहा कि-हे पुत्र ! मेरे आग्रह से बारह वर्ष तक पालन कर, उसने वह स्वीकार किया। वे बारह वर्ष जब पूर्ण हुये तब पुनः जाने की इच्छा प्रगट की, तब साध्वी माता ने कहा कि-मेरी गुरूणी को पूछा ? उसने भी उतना काल बारह वर्ष रोका और इसी प्रकार आचार्य महाराज ने भी बारह वर्ष रोका, इसी तरह उपाध्याय ने भी