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श्री संवेगरंगशाला
स्थानक संक्षेप से कहा है । अब माया मृषावाद नामक सत्तरहवाँ पाप स्थानक को भी कहता हूँ।
१७. माया मृषावाद पाप स्थानक द्वार :-अत्यन्त क्लेश के परिणाम से उत्पन्न हुआ माया द्वार अथवा कुटिलता से युक्त मृषा वचन को माया मृषावाद अथवा मायामोष कहते हैं। इसको यद्यपि दूसरे और आठवें पाप स्थानक में भिन्न-भिन्न दोषों का वर्णन किया है, फिर भी मनुष्य दोनों द्वार दूसरे को ठगने में मुख्य वेष अभिनय करने वाली चतुर वाणी द्वार पाप में प्रवृत्ति करता है। इस कारण से इसे अलग रूप में कहा है। माया मृषा वचन भोले मनुष्यों के मन रूपी हरिण को वश करने की जाल है, शील रूपी वांस की घटादार श्रेणी का नाशक फल का प्रादुर्भाव है, ज्ञानरूपी सूर्य का अस्ताचल गमन है, मैत्री का नाशक, विनय का भंजक और अकीर्ति का कारण है, इस कारण से दुर्गति से विमुख (डरने वाला) बुद्धिमान पुरुष किसी तरह से उसका आचरण नहीं करता है। और चाहे ! मस्तक से पर्वत को तोड़ दो, तलवार की तीक्ष्ण धार के अग्र भाग को चबाओ, ज्वलित अग्नि की शिखा का पान करो, आत्मा को करवत से चीरो, समुद्र के पानी में डुबो अथवा यम के मुख में प्रवेश करो, अधिक क्या कहें ? ये सारे कार्य करो, परन्तु निमेष मात्र काल जितना भी माया मृषावाद नहीं करो। क्योंकि मस्तक से पर्वत को तोड़ना आदि कार्य, साध्य धन वाला साहसिक धीर पुरुष को किसी समय अदृश्य सहायता के प्रभाव अपकारण नहीं होता है, यदि अपकारी हो फिर भी वह एक जन्म में ही होता है और मायामोष करने से तो अनन्त भव तक भयंकर फल देने वाला होता है। जैसे खट्टे पदार्थ से दूध अथवा जैसे सुराखार से गाय का दूध आदि पंच गन्य निष्फल जाते हैं, वह बिगड़ जाते हैं वैसे माया मृषा युक्त धर्म क्रिया भी निष्फल होती है। कठोर तपस्या करो, श्रुतज्ञान का अभ्यास करो, व्रतों का धारण करो तथा चिरकाल तक चारित्र का पालन करो, परन्तु वह यदि माया मृषा युक्त है तो वह गुण कारण नहीं होता है। एक ही पुरुष को माया मृषावादी और अति धार्मिक इस तरह परस्पर दोनों विरोधी हैं, ये दोनों नाम भोले मनुष्यों को भी निश्चय अश्रद्धेय बनाते हैं। इसलिए आत्महित के गवेषक बुद्धिमान मनुष्य ऐसा कौन होगा कि शास्त्र में जिसके अनेक दोष सूने जाते हैं उस माया मृषावाद को करे ? फिर भी यदि दुर्गति में जाने का मन हो, तो उन अट्ठारह पाप स्थानकों में से यह एक ही होने पर माया मृषा निश्चय वहाँ ले जाने की क्रिया में समर्थ है। इस तरह यदि माया मृषा के अन्दर एकान्त अनेक दोष नहीं होता तो पूर्व मुनि बिना द्वेष बड़ी आवाज से इस तरह त्याग