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श्री संवेगरंगशाला किसी योग्य समय पर सुबन्धु मन्त्री ने राजा से प्रार्थना की, अतः राजा की आज्ञा से वह चाणक्य के घर गया और वहाँ मजबूत बन्द किए प्रपंच वाले दरवाजे तथा गन्धयुक्त कमरे को देखा 'सारा धन समूह यहीं होगा' ऐसा मानकर दरवाजे खोलकर पेटी बाहर निकाली, उसके बाद जब चूर्ण को सूंघा और लिखा हुआ भोज पत्र को देखा, उसका अर्थ भी सम्यग् रूप से जाना, तब उसके निर्णय के लिये एक पुरुष को वह चूर्ण सुंघाया और उसने विषयों का भोग किया, उसी समय वह मर गया। इस तरह अन्य भी विशिष्ट वस्तुओं में निर्णय किया। तब अरे ! मरते हुए भी उसने मुझे भी मार दिया। इस तरह दुःख से पीडित जीने की इच्छा करता वह रंक उत्तम मूनि के समान भोगादि का त्याग कर रहने लगा। इस तरह ऐसे दोष वाले पैशुन्य-चुगल खोर को और ऐसे गुण वाले उसके त्याग को जानकर हे क्षपक मुनि ! आराधना के चित्त वाले तू उस पैशुन्य को मन में नहीं रखना चाहिए। इस तरह पन्द्रहवाँ पाप स्थानक कहा है, अब परपरिवाद नामक सौलहवाँ पाप स्थानक को संक्षेप में कहते हैं।
१६. परपरिवाद पाप स्थानक द्वार:-यहाँ लोगों के समक्ष ही जो अन्य के दोषों को कहा जाता है उसे परपरिवाद कहते हैं । वह मत्सर (इर्षा) से
और अपने उत्कर्ष से प्रगट होता है। क्योंकि मत्सर के कारण, स्नेह को, अपनी स्वीकार की प्रतिज्ञा को, दूसरे के किए उपकार को, परिचय को, दाक्षिण्यंता को, सज्जनता को, स्व-पर योग्यता के भेद को, कुलक्रम को और धर्म स्थिति को भी नहीं गिनता है, केवल हमेशा वह दूसरा कैसे चलता है ? कैसा व्यवहार करता है ? क्या विचार करता है? क्या बोलता है ? अथवा क्या करता है ? इस तरह पर के छिद्र देखने के मन वाला सुख का अनुभव नहीं करता है, परन्तु केवल वह दुःखी होता है। इस क्रम से परपरिवाद करने में एक मत्सर का ही महान कारण बनता है। फिर वह आत्मोत्कर्ष के साथ मिल जाए तो पूछना ही क्या ? आत्मोत्कर्ष वाला मेरू पर्वत के समान महान को भी अति छोटा और तृण के समान तुच्छ भी अपने को मेरू पर्वत से भी महान मानता है। इस प्रकार मत्सर आदि प्रौढ़ कारण से परपरिवाद अकार्य को रोकने के शक्तिमान भी अविवेकी मनुष्य किसी तरह शक्तिमान हो सकता है ? मनुष्य जैसे-जैसे परपरिवाद करता है वैसे-वैसे नीचता को प्राप्त करता है और जैसेजैसे नीचता को प्राप्त करता है वैसे-वैसे अपूज्य-तिरस्कार पात्र बनता है। जैसे-जैसे परपरिवाद करता है वैसे-वैसे गुणों का नाश करता है, जैसे-जैसे वह