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श्री संवेगरंगशाला
प्राप्त किया और दीक्षा अंगीकार कर राजा के पास गया, राजा ने पूछा किहे भद्र ! इस विषय में तूने क्या विचार किया ? कपिल ने करोड़ सोना मोहर की इच्छा का अपना व्यतिकर कहा । राजा ने कहा कि-करोड़ मुहर भी दूंगा इसमें कोई सन्देह नहीं है । 'अब मुझे परिग्रह से कोई प्रयोजन नहीं है।' ऐसा कहकर कपिल राजमहल से निकल गया और केवल ज्ञान प्राप्त किया। इस तरह हे सुन्दर ! दुर्जन भी लोभ शत्रु को सन्तोष रूपी तीक्ष्ण तलवार से जीतकर निश्चल तू आत्मा की निर्वृत्ति-मुक्ति को प्राप्त कर । इस तरह लोभ नाम का नौवाँ पाप स्थानक कहा है । अब प्रेम (राग) नामक दसवाँ पाप स्थानक भी सम्यग् रूप कहते हैं ।
१०. प्रेम पाप स्थानक द्वार :-इस शासन में अत्यन्त लोभ और माया रूप आसक्ति के केवल आत्मा परिणाम को ही श्री जिनेश्वर भगवन्तों ने प्रेम अथवा राग कहा है। प्रेम अर्थात् निश्चय पुरुष के शरीर अग्नि बिना का भयंकर जलन है, विष बिना की प्रगट हुई मूर्छा है और मन्त्र तन्त्र से भी असाध्य ग्रह या भूत-प्रेत का आवेश है। अखण्ड नेत्र, कान आदि होने पर भी निर्बल है अर्थात् प्रेम के कारण आँखें होने पर भी अन्धा और कान होने पर भी बहरा है, परवश है और महान् व्याकुलता है अहो ! ऐसे प्रेम को धिक्कार है। तथा बुखार के समान प्रेम (राग) से शरीर का उद्वर्तन, दुर्बलता, परिताव, कंपन, निद्रा का अभाव, बार-बार उबासी और दृष्टि की अप्रसन्नता होती है। मूर्छा प्रलाप करना, उद्वेग, और लम्बे ऊष्ण निसासा होते हैं। इस तरह बुखार के सदृश राग में अल्प भी लक्षण भेद नहीं है। राग के कारण से कुलीन मनुष्य भी नहीं चिन्तन करने योग्य भी चिन्तन करता है तथा हमेशा असत्य भी बोलता है, नहीं देखने योग्य देखता है, नहीं स्पर्श करने योग्य का भी स्पर्श करता है, अभक्ष्य को भी खाता है, नहीं पीने योग्य को पीता है, नहीं जाने योग्य स्थान में जाता है और अकार्य को भी करता है। और इस संसार में जीवों को विडम्बनकारी राग ही न हो तो अशुचिमल से भरी हुई स्त्री के शरीर से कौन राग करे? पण्डित पुरुषों ने अशुचि, दुर्गंध बीभत्स रूप जिसका त्याग किया है, उसके साथ में जो मूढ़ात्मा राग करता है, तो दुःख की बात है कि वह किसमें राग नहीं करता है ? लज्जाकारी मानकर लोगों में निश्चय अनिष्ट पापरूप जो ढांकने में आता है वही अंग उसको रम्य लगता है, तो आश्चर्य है कि उसे जहर भी मधुर लगता है। मरते समय स्त्री उच्छ्वास लेती है, श्वास छोड़ती है, नेत्र बन्द करती है और असक्त बनती है, तब उस रागी को भी वैसा ही करती है, फिर भी रोगी को वह रमणीय लगता है। अशुचि,