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श्री संवेगरंगशाला कारस्तानी है, इसलिये उनका नाश करके राज्य को स्वस्थ करूँगा। इस तरह काउस्सग्ग ध्यान में रहे मन से पूर्व के समान उनके साथ युद्ध करने लगे।
इधर प्रसन्नचन्द्र मुनि को धर्म ध्यान में स्थिर हुए देखकर श्रेणिक राजा 'अहो ! यह महात्मा किस तरह ध्यान में स्थिर है ?' इस तरह आश्चर्य रस से विस्मित हुए और भक्ति के समूह को धारण करते सर्व प्रकार से आदरपूर्वक उनके चरणों में नमस्कार करके विचार करने लगे कि-ऐसे शुभ ध्यान से युक्त हो और यदि मर जाए तो यह महानुभव कहाँ उत्पन्न होंगे? ऐसा भगवन्त को पूछंगा। ऐसा विचार करते वह प्रभु के पास पहुंचा और जगत पूज्य श्री वीर परमात्मा से पूछा कि-भगवन्त ! इस भाव में रहने वाले प्रसन्नचन्द्र मुनि मरकर कहाँ उत्पन्न होंगे ? वह मुझे कहें ? प्रभु ने कहा कि सातवीं नरक में उत्पन्न होगा। इससे राज्य निश्चय मैंने अच्छी तरह नहीं सुना ऐसा विचार में पड़ा । यहाँ प्रश्नोत्तरी के बीच में मन द्वारा लड़ते और सर्व शस्त्र खत्म होने से मुकुट द्वारा शत्रु को मारने की इच्छा वाले प्रसन्नचन्द्र मुनि ने सहसा हाथ को मस्तक पर रखा और केश समूह का लोच किए मस्तक का स्पर्श होते ही चेतना उत्पन्न हुई कि 'मैं श्रमण हूँ' इससे विषाद करते विशिष्ट शुभध्यान को प्राप्त किया जिससे उस महात्मा को उसी समय केवल ज्ञान प्राप्त किया,
और समीप में रहे देवों ने केवली की महिमा को बढ़ाया तथा दुंदुभी का नाद किया, तब राजा श्रेणिक ने पूछा कि-हे भगवन्त ! यह बाजे किस कारण बजे हैं ? जगत पूज्य वीर प्रभु ने कहा कि-'इन देवों ने प्रसन्नचन्द्र मुनि के केवल ज्ञान उत्पन्न होने का महोत्सव कर रहे हैं।' तब विस्मयपूर्वक श्रेणिक ने प्रभु को पूर्वापर वचनों के विरोध का विचार करके पूछा कि-हे नाथ ! इसमें नरक और केवल ज्ञान होने का क्या कारण है ? उस समय प्रभु ने यथास्थित सत्य कहा। ऐसा जानकर हे क्षपक मुनि ! क्रोध के त्याग से प्रशम रस की सिद्धि को प्राप्त करता है, अतः अति प्रसन्न मन वाले तू विशुद्ध आराधना को प्राप्त कर । इस तरह क्रोध नाम का छठा पाप स्थानक कहा है। अब मान नाम का सातवाँ पाप स्थानक के विषय में कुछ कहते हैं।
७. मान पाप स्थानक द्वार :-मान संतापकारी है, मान अनर्थों के समूह का जाने वाला मार्ग है, मान पराभव का मूल है और मान प्रिय बन्धुओं का विनाशक है। मान रूपी बड़े ग्रह के आधीन हुआ अक्कड़ता के दोष से अपने यश और कीर्ति को नाश करता है तथा तिरस्कार पात्र बनता है। यह महापापी मान लघुता का मूल कारण है, सद्गति के मार्ग का घातक है, दुर्गति