________________
श्री संवेगरंगशाला
३७३ का मार्ग है और सदाचार रूपी पर्वत को नाश करने में वज्र के समान है। मान के द्वारा अक्कड़ शरीर वाला हित अहित वस्तु को नहीं जानता है। क्या इस जगत में मैं भी किसी प्रकार से कम अथवा क्या गुण रहित हूँ ? इस तरह कलुषित बुद्धि से आधीन बना संयम का मूलभूत विनय को नहीं करता है, विनय रहित में ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती है, और ज्ञान के बिना चारित्र की प्राप्ति नहीं है। चारित्र गुण से रहित जगत में विपुल निर्जरा को नहीं कर सकता, उसके अभाव में मोक्ष नहीं होता और मोक्ष के अभाव में सुख कैसे हो सकता है ? मान रूपी अन्धकार के समूह से पराभूत, मूढ़ कर्त्तव्य अकर्तव्य में मुरझाकर बार-बार गुण रहित व्यक्तियों का अतिमान करके गुणवन्तों का अपमान करता है, इससे बुद्धि भ्रष्ट होती है, पापी बना गोष्ठा माहिल्ला के समान सर्व सुखों का मूलभूत सम्यक्त्व रूप कल्प वृक्ष को भी मूल में से ही उखाड़ देता है। इस तरह मानांध पुरुष अशुभ नीच गोत्र कर्म का बन्धन कर नीच में भी अति नीच बनकर अनन्त संसार में परिभ्रमण करता है। तथा विषय आदि की आसक्ति अथवा घरवास का त्याग करके भी चरण-करण गुणों के बाह्य चारित्र को प्राप्त करता है, अति उग्र तप आदि कष्टकारी अनुष्ठान को आचरण करता है। हम ही त्यागी हैं, हम ही बहुत श्रुतवान, हम ही गुणी और हम ही उग्र क्रिया वाले हैं अन्य तो कुत्सित मात्र वेषधारी हैं। अहो ! यह कष्ट कि इस तरह विलास प्राप्त होते मान रूपी अग्नि से पूर्व में किए विद्यमान भी अपने गुणरूपी वन को जला देते हैं ? ऐसे मान को धिक्कार है, धिक्कार है । और विपरीत धर्माचरण वाले तथा आरम्भ-परिग्रह से भरे हुए स्वयं मूढ़ पापी मानी पुरुष अन्य मनुष्यों को भी मोह मूढ़ करके जीव समूह की हिंसा करते हैं सदा शास्त्र विरुद्ध कर्मों को करता है और भी गर्व करता है कि इस जगत में धर्म के आधारभूत पालन करने वाले हम ही हैं।
शान्त, रस और सिद्धि गारव वाले, द्रव्य क्षेत्रादि में ममता करने वाले और अपनी-अपनी क्रिया के अनुरूप जैनमत की भी उत्सूत्र प्ररूपणा करने वाला, द्रव्य क्षेत्रादि के अनुरूप अपना बल-वीर्य आदि होने पर भी चरणकरण गुणों में यथाशक्ति उद्यम नहीं करते, अपवाद मार्ग में आसक्त, ऐसे लोगों से पूजित मानी पुरुष इस शासन में 'हम ही मुख्य हैं' इस प्रकार अपना बड़प्पन और अभिमान से काल के अनुरूप क्रिया में रक्त संवेगी, गीतार्थ, श्रेष्ठ मुनिवर आदि की 'यह तो माया आदि में परयण-कपटी है' इस तरह लोगों के समक्ष निन्दा करता है, और अपने आचार के अनुसार प्रवृत्ति करने वाला ममत्व से बद्ध पासत्था लोग को 'यह कपट से रहित है' ऐसा बोलकर उसकी