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श्री संवेगरंगशाला
ર૬૧ है, वैसे शिष्यादि को भी वह गर्जना रहित वात्सल्य भाव से ज्ञानामृत की वर्षा करने में तत्पर, यथायोग्य शिष्य को योग्य बनाने वाले होते हैं । अभ्यन्तर और बाह्य सामर्थ्य वाला तथा स्व और पर की अनुकम्पा में तत्पर तथा सूत्र पढ़ने से क्रिया में सीता सरोवर के समान नित्य बहते हये श्रोत के समान, और अध्ययन की क्रिया में सर्व ओर से पानी (जल) को प्राप्त करते श्रोत के सदृश साधु की खोज करे।
फिर भी काल की परिहानि के दोष से ऐसा सम्पूर्ण गुण वाला नहीं मिले तो इससे एक, दो आदि कम गुण वाला अथवा छोटे-बड़े दोष वाला भी अन्य बहुत बड़े गुण वाले को उत्तम प्रकार के शिष्य को शोध करके यह योग्य है ऐसा मानकर ऋष मुक्ति की इच्छा वाले आचार्य अपने गण-समुदाय को पूछ करके उसे गणाधिपति रूप (आचार्य पद) में स्थापन करे, केवल इतना विशेष है कि-अपना और शिष्य का दोनों का भी जब लग्न श्रेष्ठ चन्द्रबल युक्त हो, ऊँचे स्थान में रहे सर्व शभ ग्रहों की दृष्टि लग्न के ऊपर पड़ती हो, ऐसे उत्तम लग्न के समय में गच्छ के हित में उपयुक्त वह आचार्य समग्र संघ साथ में शास्त्रोक्त विधि से उस शिष्य में अपना आचार्य पद को आरोपन (स्थापन) करे। फिर निःस्पृह उस आचार्य को सूत्रोक्त विधि से समग्र संघ समक्ष ही यह गण तुम्हारा है' ऐसा बोलकर गच्छ की अनुज्ञा करे अर्थात् नये आचार्य को गच्छ समर्पण करे। परन्तु यदि आचार्य ऊपर कहे अनुसार सविशेष सभी गुण समूह से युक्त पुरुष के अभाव में अन्य साधुओं की अपेक्षा से कुछ विशेष सद्गुण वाले भी साधु को अपने पद पर स्थापन नहीं करे और उसे गच्छ-समुदाय भी नहीं सौंपे तो वह शिव भद्राचार्य के समान अपने हित को और गच्छ को भी गँवा देता है, उसकी कथा इस प्रकार है :
शिवभद्राचार्य का प्रबन्ध कंचनपुर नगर में श्रुतरूपी रत्नों का महान् रत्नाकर, महान् भाग्य वाला और अनेक शिष्यों रूप गच्छ के नेत्र रूप शिवभद्र नाम से आचार्य थे। वे महात्मा एक समय, मध्यरात्री के समय में आयुष्य को जानने के लिए जब आकाश को देखने लगे, तब अकस्मात् उन्होंने उछलती कान्ति के प्रवाह से समग्र दिशा चक्र को उज्जवल करते दो चन्द्र को समकाल में देखा । इससे क्या मति भ्रम से दो चन्द्र देखा है अथवा क्या दृष्टि दोष है ? या क्या कृत्रिम भय है ? ऐसा विस्मित चित्त वाले उन्होंने दूसरे साधु को उठाया और कहा किहे भद्र ! क्या आकाश में तुझे दो चन्द्रमण्डल दिखते हैं ? उसने कहा कि-"मैं