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श्री संवेगरंगशाला
भी छत्तीस गुण होते हैं । तथा आठ प्रवचन माता और दस प्रकार का यति धर्म यह अट्ठारह एवं छह व्रतों का पालन, छह काया का रक्षण आदि ऊपर कहे अनुसार अट्ठारह भेद मिलाकर भी छत्तीस गुण होते हैं । अथवा आचारवान् आदि आठ गुण, अचेलकत्व औदेशिक त्याग आदि दस प्रकार का, स्थित कल्प बारह प्रकार का तप और छह आवश्यक इस तरह भी छत्तीस गुण होते हैं। इस प्रकार अनेक प्रकार कहे हुये छत्तीस गुणों के समूह से शोभित आचार्य को भी मुक्ति के सुख के लिए आलोचना सदा परसाक्षी से ही करनी चाहिये । जैसे कुशल वैद्य भी अपना रोग दूसरे वैद्य को कहता है और दूसरा वैद्य भी सुनकर उस रोगी वैद्य की श्रेष्ठ चिकित्सा को प्रारम्भ करता है वैसे प्रायश्चित विधि को अच्छी तरह जानकार स्वयं जानकार हो फिर भी अपने दोषों को अन्य गुरू को अति प्रगट रूप कहना चाहिए। तथा जो अन्य आलोचनाचार्य होने पर उन्होंने आलोचना दिये बिना ही वे आलोचना नहीं देते, ऐसा मानकर यदि अपने आप आलोचना-प्रायश्चित करता है वह भी आराधक नहीं है । इस कारण से ही प्रायश्चित के लिए गीतार्थ की खोज करे, क्षेत्र से उत्कृष्ट सात सौ योजन तक और काल से बारह वर्ष तक करनी चाहिए। इस तरह आलोचना नहीं करने से होने वाले दोषों को संक्षेप में कहा है। अब वह प्रायश्चित करने से जो गुण प्रगट होते हैं उसे कहता हूँ।
५. आलोचना से गुण प्रगट :-(१) लघुता, (२) प्रसन्नता, (३) स्वपर दोष निवृत्ति, (४) माया का त्याग, (५) आत्मा की शुद्धि, (६) दुष्कर क्रिया, (७) विनय की प्राप्ति, और (८) निशल्यता। ये आठ गुण आलोचना करने से प्रगट होते हैं, इसे अनुक्रम से कहता हूँ
१ लघुता :-यहाँ पर कर्म के समूह को भार स्वरूप जानना क्योंकि वह जीवों को थकाता है, पराजित करता है, उस भार से थका हुआ जीव शिव गति में जाने में असमर्थ हो जाता है, संकलेश को छोड़कर शुद्ध भाव से दोषों की आलोचना करने से बार-बार में पूर्व में एकत्रित किये कर्म-बन्धन को वह महान भार को खत्म करता है, और ऐसा होने से जीव को भाव से शिव गति का कारणभूत चारित्र गुण की अपेक्षा द्वारा परमार्थ से महान कर्मों की लघुता प्राप्त करता है । अर्थात् वह आत्मा कर्मों से हल्का बन जाता है।
२. प्रसन्नता :-शुद्ध स्वभाव वाला मुनि जैसे-जैसे दोषों को सम्यग् उपयोगपूर्वक गुरू महाराज को बतलाता है वैसे-वैसे नया-नया संवेग रूप श्रद्धा से प्रसन्न होता है 'मुझे यह दुर्लभ उत्तम वैद्य मिला है, भाव रोग में ऐसा वैद्य