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श्री संवेगरंगशाला असंयम की वृद्धि है, भोग के अभाव तुल्य देव मनुष्य के भोगों का अभाव और बार-बार मृत्यु रूपी यहाँ संसार समझना । अथवा लज्जा के आधीन अपराध को सम्यक् रूप नहीं कहने से दोष होता है और लज्जा को छोड़कर अपराध कहने से गुण प्रगट होता है। इसे समझाने के लिये ब्राह्मण पुत्र का इष्टान्त कहते हैं।
लज्जा से दोष छुपाने वाले ब्राह्मण पुत्र की कथा
उद्यान भवन गोल बावड़ी, देव मन्दिर, चतुष्कोन बावड़ी और सरोवर से रमणीय, एवं समग्र जगत में प्रसिद्ध पाटलीपुत्र नामक नगर में वेद और पुराण का जानकार, ब्राह्मणों में मुख्य तथा सर्वत्र प्रसिद्धि प्राप्ति करने वाला, धर्म में उद्यमशील बुद्धि वाला कपिल नाम का ब्राह्मण था। वह अपनी बुद्धि बल से भव स्वरूप को मदोन्मत्त स्त्री के कटाक्ष समान नाशवत् यौवन के लावण्य को वायु से उड़े हुआ, आक की रुई समान चपल, तथा विषय सुख को किंपाक के फल समान प्रारम्भ में मधुर और परिणाम में दुःखद मानकर तथा सारे स्वजन के सम्बन्धों को भी अति मजबूत बन्धन समान जानकर, घर का राग छोड़कर, एक जंगल की भयानक झाड़ियों वाले प्रदेश में वह तापस दीक्षा स्वीकार कर रहा था। और उस शास्त्र के कथन अनुसार विधिपूर्वक विविध तपस्या तथा फल, मूलकंद आदि से तापस के योग्य जीवन निर्वाह करने लगा। एक दिन वह स्नान के लिये नदी किनारे गया और वहाँ उसने मछली के मांस को खाते पापी मछुए को देखा, कि जिससे उसके पूर्व की पापी प्रकृति से और जीभ इन्द्रिय की प्रबलता से मांस भक्षण की तीव्र इच्छा प्रगट हुई। फिर उसने उनके पास से उस मांस की याचना कर गले तक खाया और उसके खाने से अजीर्ण के दोष से उसे भयंकर बुखार चढ़ा। इससे चिकित्सा के लिए नगर में से कुशल वैद्य को बुलाया और वैद्य ने उससे पूछा कि-हे भद्र ! पहले तूने क्या खाया है ?
लज्जा से उसने सत्य नहीं कहा, परन्तु उसने कहा कि मैंने वह खाया है जो तापस कंद, मूल आदि खाते हैं। ऐसा कहने पर वैद्य ने 'बुखार वात दोष से उत्पन्न हुआ है' ऐसा मानकर उसको शान्ति करने वाली क्रिया की, परन्तु उससे कोई लाभ नहीं हुआ। वैद्य ने फिर पूछा, तब भी उसने लज्जा से वैसे ही कहा और वैद्य ने भी वही क्रिया-दवा को विशेष रूप से किया। फिर उल्टे, उपचार से वेदना बढ़ गई । अत्यन्त पीड़ा और मृत्यु के भय से कम्पते शरीर वाले, उसने लज्जा छोड़कर एकान्त में वैद्य को मांस खाने का वृत्तान्त