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श्री संवेगरंगशाला
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से क्या प्रयोजन है ? इस तरह चिन्तन करते कोई संवेग में तत्पर बनता है। कोई अल्प आस्वादन करके अब किनारे पर पहुँचा हुआ मुझे इस द्रव्य को खाने से क्या प्रयोजन है ? इस प्रकार वैराग्य के अनुसार संवेग में दृढ़ बनता है । कोई थोड़ा खाकर खेद करता है हा हा ! मुझे अब इन द्रव्यों से क्या प्रयोजन है ? ऐसा वैराग्य के अनुसार संवेग में परायण बनता है। कोई सम्पूर्ण खाकर पश्चाताप करता है धिक् धिक् ! मुझे अब इन द्रव्यों की क्या आवश्यकता है ? इस प्रकार वैराग्य के अनुसार संवेग में दृढ़ बनता है। और कोई उसे खाकर यदि मनपसन्द रस में रसिक बने चित्त परिणाम वाला उस भोजन में ही सर्व से या देश से आसक्ति करता है तो वह क्षपक मुनि को पुनः समझाने के लिए गुरू महाराज रसासक्ति को दूर करने वाले आनन्द दायक वचनों से धर्मोपदेश करता है। केवल धर्मोपदेश को ही नहीं करे, परन्तु उसको भय दिखाने के लिये सूक्ष्म भी गृद्धि शल्य के कष्टों को इस प्रकार बतलाए । भूखे इस जीव ने हिमवंत पर्वत, मलय पर्वत, मेरू पर्वत और सारे द्वीप समुद्र तथा पृथ्वी के समान के ढेर से भी अधिकतर तूने आहार खाया है । इस संसार चक्र में परिभ्रमण करते तुने सभी पूदगलों को अनेक बार भोगे हैं और शरीर रूप में परिवर्तन हुआ है, फिर भी तू तृप्त नहीं हुआ है। पापी आहार के कारण शीघ्र सर्व नरकों में जाता है वहाँ से अनेक बार सर्व प्रकार की म्लेच्छ जातियों में भी उत्पन्न होता है । आहार के कारण तन्दुलिया मछली अन्तिम सातवीं नरक में जाती है, इसलिए हे क्षपक मुनि तू आहार की सर्व क्रिया को मन से भी इच्छा नहीं करना। तृण और काष्ठों से जैसे अग्नि शान्त नहीं होती अथवा हजारों नदियों से लवण समुद्र तृप्त नहीं है वैसे भोजन क्रिया से रस जीव को तृप्त नहीं कर सकता है । गरमी ताप से पीड़ित जीव ने निश्चय ही इस संसार में जितना जल पिया उतना जल सारे कुओं में, तालाबों में, नदियों और समुद्र में भी नहीं है।
इस अनन्त संसार में अन्य-अन्य जन्मों में माताओं के स्तन का जो दूध पिया है वह भी समुद्र के पानी से अधिकतर है। और स्वादिष्ट घृत समुद्र, क्षीर समुद्र और इक्षरस समुद्र आदि महान् समुद्र में भी अनेक बार उत्पन्न हुआ है, फिर भी उस शीतल जल से तेरी प्यास शान्त नहीं हुई । यदि इस तरह अनंता भी भूतकाल में तूने तृप्ति नहीं प्राप्त की तो वर्तमान में अनशन में रहे तेरी इसमें गृद्धि करने से क्या प्रयोजन है ? जैसे-जैसे गृद्धि (आसक्ति) की जाये वैसे-वैसे जीवों को अविरति की वृद्धि होती है। जैसे-जैसे उसकी अविरति की वृद्धि होती है वैसे-वैसे उसके कारण से कर्मबन्ध होता है, इससे संसार और उस संसार में दुःखों की परम्परा बढ़ती है। इस तरह सर्व दुःखों का कारण