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__ श्री संवेगरंगशाला भावना रूप पवन से उत्तेजित की हुई तपस्या रूपी अग्नि की ज्वालाओं से क्षपक तपस्वी मुनि सूखे बड़ वृक्षों के समूह के समान क्षण में जला देता है। इस तरह विघ्नों के समूह को सम्यक् घात करने वाला श्री श्रमण संघ आदि सर्व जीवों को खमाने में तत्पर रहता है और स्वयं भी श्री संघ आदि सर्व जीवों को क्षमा देने वाला इसलोक-परलोक के बाह्य सुख, निदान अभिलाषा रहित, जीवन मरण में समान वृत्ति वाला चन्दन के समान अपकारी-उपकारी और मान-अपमान में समभाव वाला क्षपक मुनि अपने आत्मा को सर्व गुणों से युक्त निर्यामक को सौंपकर उनका शरण स्वीकार करके संथारा में बैठा हुआ सर्वथा उत्सुकता रहित काल व्यतीत करे। इस तरह परिकर्म करते हए अन्य गण में रहा हुआ ममता को छेदन करके मोक्ष को चाहने वाला क्षपक मुनि समाधि मरण की प्राप्ति के लिए उद्यम करे।
___ इस तरह श्री जैन चन्द्र सूरि जी रचित संवेगी मनरूपी भ्रमण के लिए खिले हुए पुष्पों का उद्यान समान संवेगरंगशाला नाम की आराधना के नौ अन्तर द्वार वाला तीसरा ममत्व विच्छेद द्वार में नौवाँ खामणा नाम का अन्तर कहा है। और इसे कहने से मूल चार द्वार का यह ममत्व विच्छेद नाम का तीसरा द्वार सम्पूर्ण हुआ है । इस तरह संवेगरंगशाला नामक आराधना का नौ अन्तर द्वार से रचा हुआ ममत्व विच्छेद नामक तीसरा मूल द्वार यहाँ समाप्त हुआ। इस तरह ५५५४ गाथा पूर्ण हुई।
॥ इति श्री संगरंगशाला द्वार तृतीय ॥