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श्री संवेगरंगशाला रस गृद्धि है, इस कारण से संसारी जीवों के सारे दुःखों की पीड़ा, अभिमान का और अपमान का मूल कारण यह रस गृद्धि ही जानना । इस तरह ज्ञानादि गुणों से महान् और दीर्घ दुःख रूपी वृक्षों को मूल से छेदन करने वाले गुरू महाराज ने गृद्धि रूप शल्य के विविध कष्टों को अच्छी तरह कहने से भव भ्रमण के दुःखों से डरा हुआ सम्यक् आराधना करने की रुचि वाला वह क्षपक महात्मा संवेगपूर्वक रसगृद्धि का त्याग करता है। ऐसा कहने पर भी कर्म के दोष से यदि गृद्धि का त्याग नहीं तो उसकी प्रकृति के हितकर निर्दोष भोजन उसे दे, ऐसे भोजन की प्राप्ति न हो तो उसकी याचना करे अथवा खोज करे और ऐसा होने पर भी यदि नहीं मिले तो उसकी समाधि स्थिर रखने के लिए मूल्य आदि द्वारा उपयोगपूर्वक देना । केवल गुरू एकान्त में मुनियों को प्रेरणा करे कि-तुम्हें क्षपक के सामने इस तरह कहना कि 'संयम योग्य वस्तु यहाँ दुर्लभ है।' फिर इस तरह शिक्षा दी हुई वे क्षपक के आगे इसी तरह कहें और दुःख से पीड़ित हो इस तरह प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा कम देते जाएँ। फिर उचित समय गुरू कहे कि हे क्षपक मुनि ! तेरे लिए दुर्लभ अशनादि ले आने में मुनि कैसे कष्टों को सहन करते हैं ? इससे वह पश्चाताप करते और प्रतिदिन एकएक कौर का त्याग द्वारा आहार को कम करता है, वह क्षपक अपने पूर्व के मूल आहार में स्थिर रहता है और अनुक्रम से उसे भी कम करता जाये, इस तरह सारे आहार का संवर (त्याग) करता क्षपक मनि अपने पानी के अभ्यास से वासित करे अर्थात् त्रिविध आहार का त्याग करे। इस तरह मिथ्यात्वरूपी कमल को जलाने में हिम समान और संवेगी मनरूपी भ्रमर के लिये खिले हुए पुष्पों का उद्यान समान संवेगरंगशाला नामक आराधना के नौ अन्तर द्वार वाला तीसरा ममत्व विच्छेद द्वार में छठा हानि नामक अन्तर द्वार कहा है। अब पानी के पोषण द्वारा वह क्षपक मुनि जिस तरह संवर करता है उसे अल्पमात्र कहते हुए पच्चक्खान द्वार को कहते हैं।
सातवाँ पच्चक्खान द्वार :-स्वच्छ, चावल आदि का ओसामण (मांड), लेपकृत, अलेपकृत, कण वाला और कण रहित इस तरह छह प्रकार के जल को शरीर रक्षा के लिए योग्य कहा है। उसमें तिल, जौ, गेहूँ आदि अनाज के घुआ हुआ जल, गुड़-खांड के पात्र के घुला हुआ जल, इमली आदि के घुला हुआ खट्टा जल, इस प्रकार का दूसरा भी जो स्वकाय शस्त्र से अथवा परकाय शस्त्र से अचित्त हुआ हो, वह नौ काटि से अर्थात् हनन, कयण, या पाचन, नहीं किया हो, नहीं करवाया हो या अनुमति नहीं दी हो, अति विशुद्ध केवल अन्य किसी की आशा की अपेक्षा बिना लोगों से मिला हुआ जल साधुओं के योग्य है। इस प्रकार से सहज स्वभाव से मिला हुआ पानी द्वारा क्षपक मुनि सदा