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श्री संवेगरंगशाला
भगवन्त ! यह अवन्ती नाथ कौन है ? अथवा वह नर सुन्दर राजा कौन है ? गुरू महाराज ने कहा- हे राजन् ! मैं जो कहता हूँ उसे तुम ध्यानपूर्वक सुनो।
अवन्तीनाथ और नर सुन्दर की कथा
पृथ्वीतल की शोभा समान ताम्रलिप्ती नाम की नगरी थी, उसमें क्रोध से यम, कीर्ति से अर्जुन के समान और दो भुजाओं से बलभद्र सदृश एक होने पर भी अनेक रूप वाला नर सुन्दर नामक राजा था । उसे रति के समान अप्रतिम रूप वाली, लक्ष्मी के समान श्रेष्ठ लावण्य वाली एवं दृढ़ स्नेह वाली बंधुमति नाम की बहन थी । उसे विशाला नगरी के स्वामी अवन्तीनाथ के राजा ने प्रार्थनापूर्वक याचना कर परम आदरपूर्वक विवाह किया । फिर उसके प्रति अति अनुराग वाला वह हमेशा सुरपान के व्यसन में आसक्त बनकर दिन व्यतीत करने लगा। उसके प्रमाद दोष से राज्य और देश में जब व्यवस्था भंग हुई तब प्रजा के मुख्य मनुष्यों और मंत्रियों ने श्रेष्ठ मंत्रणा करके उसके पुत्र को राज्य गद्दी पर स्थापना कर राजा को बहुत सुरापान करवाकर रानी के साथ में पलंग पर सोये हुये उसको संकेत किए अपने मनुष्यों के द्वारा उठवा कर सिंह, हरिण, सूअर, भिल्ल और रीछों से भरे हुए अरण्य में फेंक दिया और राजा के उत्तराचल वस्त्र के छेड़े पर वापिस नहीं आने का निषेध सूचक लेख (पत्र) बाँध दिया ।
प्रभात में जागृत हुआ और मद रहित बने राजा ने जब पास में देखा, तब वस्त्र के छेड़े पर एक पत्र देखा और उसे पढ़कर, उसके रहस्य को जानकर क्रोधवश ललाट पर भृकुटी चढ़ाकर अति लाल दृष्टि फेंकते और दांत के अग्र - भाग से होंठ को काटते रानी को इस प्रकार कहने लगा - हे सुतनु ! जिसके ऊपर हमेशा उपकार किया है, हमेशा दान दिया है, हमेशा मेरी नयी-नयी मेहरबानी से अपनी सिद्धियों को विस्तारपूर्वक सिद्ध करने वाले, अपराध करने पर भी मैंने हमेशा स्नेहयुक्त दृष्टि से देखता हुआ उनके गुप्त दोषों को कदापि जाहिर नहीं किया और संशय वाले कार्यों में सदा सलाह लेने योग्य भी पापी मन्त्री, सामन्त और नौकर आदि ने इस तरह अपने कुलक्रम के अनुरूप प्रपंच किया है, उसे तूने देख लिया ? मैं मानता हूँ कि - उन पापियों ने स्वयमेव मृत्यु के मुख में प्रवेश करने की इच्छा की है, अन्यथा उनको स्वामी द्रोह करने की बुद्धि कैसे जागृत होती ? अतः निश्चय मैं अभी ही उनके मस्तक को छेदन कर भूमि मण्डल को सजाऊँगा, उनके मांस से निशाचरों को भी पोषण करूँगा