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श्री संवेगरंगशाला के टुकड़े और सुवर्ण में अत्यन्त समचित्त वाला एवं परमार्थ से तत्त्व के जानकार जो आत्मा है वही संथारा है। जिसको स्वजन अथवा परजन में, शत्रु और मित्र में, तथा स्व-पर विषय में परम समता है वही आत्मा ही निश्चय संथारा है । दूसरों को प्रिय या अप्रिय करने पर भी जिसका मन हर्षित अथवा दीनता को धारण नहीं करता उसकी आत्मा ही संथारा है। किसी भी द्रव्य में, क्षेत्र में, काल में या भाव में राग को त्याग करने के लिए तत्पर रहना और जो सर्व जीवों के प्रति मैत्री भाव वाली आत्मा हो वही भाव संथारा है। सम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्र रूप जो मोक्ष साधक गुण उस आत्मा में ही सुरक्षित रहते हैं, इसलिए भाव से आत्मा ही संथारा है। ____ शुद्ध और अशुद्ध संथारा-आश्रव द्वार को नहीं रोकने वाला जो आत्मा को उपशम भाव में स्थिर नहीं करता है और संथारा में रहे अनशन स्वीकार करे उसका संथारा अशुद्ध है। गारव से उन्मत्त जो गुरूदेव के पास आलोचना लेने की इच्छा नहीं रखे और संथारे में बैठा हो उसका संथारा अशुद्ध है। योग्यता प्राप्त करने वाला यदि गुरू महाराज के पास आलोचना को करता है और संथारे में रहता है उसका संथारा अति विशुद्ध है। सर्व विकथा से मुक्त, सात भय स्थानों से रहित बुद्धिमान जो संथारे में रहता है उसका संथारा अति विशुद्ध है । नौ वाड सुरक्षित ब्रह्मचर्य वाला एवं दस प्रकार के यति धर्म से युक्त जो संथारे में रहता है उसका संथारा अति विशुद्ध है। आठ मद स्थानों से पराभव प्राप्त करने वाला, निर्वंस परिणाम वाला, लोभी और उपशम रहित मन वाले का यह संथारा क्या हित करेगा ? जो रागी, द्वेषी, मोह, मूढ़, क्रोधीमानी, मायावी और लोभी है वह संथारे में रहे हुये भी संथारे के फल का भागीदार नहीं होता है। जो मन, वचन और काया रूप योग के प्रचार को नहीं रोकता और सर्व अंगों से, जिसकी आत्मा संवर रहित है, वह वस्तुतः धर्म से रहित, संथारे के फल का हिस्सेदार कैसे बन सकता है ? अतः जो गुण बिना का भी संथारे में रहकर मोक्ष की इच्छा करता है उस मुसाफिर, रंक और सेवक जन का मोक्ष प्रथम होता है, बाह्य-अभ्यंतर गुणों से रहित और बाह्य-अभ्यंतर दोष से दूषित रंक आत्मा संथारे में रहता है, फिर भी अल्पमात्र भी फल को प्राप्त नहीं करता है। बाह्य-अभ्यन्तर गुण से युक्त और बाह्य-अभ्यन्तर दोषों से दूर रहा हुआ, संथारे में नहीं रहने पर भी इच्छित फल का पात्र बनता है। तीनों गारव से रहित, तीन दण्ड का नाश करने में जिसकी कीति फैली हई है, जो निःस्पृह मन वाला है उसका संथारा निश्चय सफल है। जो छह काय जीवों की रक्षा के लिये एकाग्र जयणा पूर्ण