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श्री संवेगरंगशाला
फिर किसी समय उसकी माता ने उसको स्वप्न में आश्चर्यकारक वैभव से युक्त देवों के समूह वाला स्वर्गलोक को बतलाया। और पूर्व के समान पुनः सभी को आमन्त्रण देकर राजा ने पूछा, परन्तु यथार्थ उत्तर नहीं मिला, इससे आखिर में आचार्य श्री को बुलाकर स्वर्ग का वृत्तान्त पूछा, तब आचार्य श्री ने भी उसका स्वरूप यथार्थ कहा और हर्षित हुई रानी पुष्पचूला ने भक्ति से चरणों में नमस्कार करके कहा कि गुरूदेव ! नरक के दुःखों की प्राप्ति किस प्रकार होती है ? और देवों के सुख की प्राप्ति किस प्रकार होती है ? गुरू महाराज ने कहा-भद्रे ! विषयासक्ति आदि पापों से नरक का दुःख और उसके त्याग से स्वर्ग सुख मिलता है। तब सम्यक् प्रतिबोध को प्राप्त कर उसने विषय के व्यसन को छोड़कर दीक्षा लेने के लिये राजा से अनुमति माँगी और उसके विरह से राजा मुरझा गया। फिर 'तुझे कभी भी अन्य क्षेत्र में विहार नहीं करना, इस स्थान पर रहना।' ऐसी प्रतिज्ञापूर्वक, महाकष्टपूर्वक आज्ञा दी, फिर पुष्पचूला दीक्षा लेकर अनेक तपस्या द्वारा पापों का पराभव करने लगी।
एक समय दुष्काल पड़ा। सभी शिष्यों को दूर देश में विहार करवा दिया । अणिका पुत्र आचार्य का जंघा बल क्षीण होने से अकेले वहीं स्थिरवास किया और पुष्पचूला साध्वी राजमन्दिर से आहार, पानी लाकर देती थी। इस तरह समय व्यतीत करते अत्यन्त विशद्ध परिणाम वाली उस साध्वी ने घातीकर्म को नाश करके केवल ज्ञानरूप प्रकाश प्राप्त किया। परन्तु 'केवली रूप में प्रसिद्ध नहीं होने से केवली पूर्व जो आचार पालन करते हैं, उस विनय का उल्लंघन नहीं करते हैं। ऐसा आचार होने से वह पूर्व के समान गुरू महाराज को अशनादि लाकर देती थी। एक समय श्लेष्म से पीड़ित आचार्य श्री को तीखा भोजन खाने की इच्छा हुई। उसने उचित समय उस इच्छा को उसी तरह पूर्ण की, इससे विस्मय मन वाले आचार्य श्री ने कहा कि हे आर्या ! तूने मेरा मानसिक गुप्त चिन्तन को किस तरह जाना ? कि जिससे अति दुर्लभ भोजन को योग्य समय लेकर आई हो ? उसने कहा-ज्ञान से । आचार्य श्री ने पूछा-कौन से ज्ञान के द्वारा ? उसने कहा कि-अप्रतिपाती ज्ञान के द्वारा। यह सुनकर, धिक्कार हो, धिक्कार हो, मैं अनार्य ने, महात्मा ने इस केवली की कैसी आशातना की है ? इस तरह आचार्य शोक करने लगे। तब, हे मुनिश्वर ! शोक मत करो । क्योंकि-'यह केवली है' ऐसा जाहिर हुए बिना केवली भी पूर्व के व्यवहार को नहीं छोड़ते हैं । ऐसा कहकर उसे शोक करते रोका । फिर आचार्य ने पूछा-'मैं दीर्घकाल से उत्तम चारित्र की आराधना