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श्री संवेगरंगशाला
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यथोक्त हो परन्तु संथारा के बिना आराधक को प्रसन्नता नहीं रहती है, अतः अब उस द्वार को कहते हैं।
तीसरा संस्तारक द्वार :-पूर्व में विस्तार से कहा है, उसके अनुसार हो, परन्तु जहाँ चूहे के खोदे ये रज समूह का थोड़ा नाश न हो, जहाँ जमीन में से उत्पन्न हुआ खार और जलकण आदि का विनाश न हो, जहाँ दीपक का, बिजली का और पूर्व पश्चिमादि दिशा का प्रबल वायु का विनाश न हो, जहाँ अनाज आदि बीज का अथवा हरी वनस्पति का स्पर्श न हो, जहां चींटी आदि त्रस जीवों की हिंसा न हो, जहाँ पर असमाधिकारक अशुभ द्रव्यों की गन्ध आदि न हो, जहाँ जमीन खड्डे और फटी न हो वहाँ क्षपक मुनि की प्रकृति के हितकारी प्रदेश में समाधि के लिये पृथ्वी की शिला का, काष्ठ का अथवा घास का संथारा बनाकर उत्तर में मुख रखे अथवा पूर्व सन्मुख रखना चाहिए। उसमें भूमि संथारा अचित्त, समान, खोखलों से रहित जमीन पर और शिला संथारे के अन्दर पत्थर फटा हुआ न हो अथवा जीव संयुक्त न हो और ऊपर का भाग सम हो, उस शिला पर संथारा करना चाहिए। काष्टमय संथारा छिद्र रहित हो, स्थिर हो, भार में हल्का हो, एक ही विभाग अखण्ड काष्ट का करना और घास का संथारा जोड बिना का, लम्बे तण का, पोलेपन से रहित और कोमल करना चाहिए, एवं उभयकाल पडिलेहणा से शुद्ध किया हुआ और योग्य माप से किए हुए इस संथारे में तीन गुप्ति से गुप्त होकर बैठना। मुनि को भावसमाधि का कारण होने से ऊपर कहे अनुसार यह द्रव्य संथारा भी निःसंगता का प्रतीक कहा है। फिर संलीनता में स्थिर रहा हुआ संवेग गुणयुक्त और धीर संलेखना करने वाला क्षपक मुनि संथारा में बैठा वह अनशन के काल को निर्गमन करे। मजबूत और कठीनता से तृण आदि के संथारे में, बैठने में असमर्थ, क्षपक मुनि को यदि किसी भी प्रकार असमाधि हो तो उस पर एक, दो अथवा अधिक कपड़े बिछाए और अपवाद मार्ग में तो तलाई आदि भी उपयोग में ले सकते हैं।
भाव संथारा-इस तरह द्रव्य की अपेक्षा से संथारा अनेक प्रकार का कहा है। भाव की अपेक्षा से वह संथारा अनेक प्रकार का जानना, जैसे किराग, द्वेष, मोह और कषाय के जाल को दूर से त्यागी परम प्रशम भाव को प्राप्त करने वाला आत्मा ही संथारा है । सावध योग से रहित संयम धन वाला, तीन गुप्ति से गुप्त और पाँच समिति से समित आत्मा जो भाव साधु है उसका आत्मा ही संथारा है । निर्मम और निरहंकारी, तृण मणि में, तथा पत्थर