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श्री संवेगरंगशाला
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भी कैसा हुआ ? इस संसारवास को धिक्कार हो ! मैं मानता हूँ कि-इस संसार में सर्व पदार्थ हाथी के कान, इन्द्र धनुष्य और बिजली की चपलता से युक्त हैं, इस कारण से देखते ही वह क्षण में नाश होता है। इस प्रकार का संसार होने पर परमार्थ के जानकार पुरुष विश्वास द्वारा अपने घर में क्षण भी कैसे रह सकते हैं ? अहो ! उनकी यह कैसी महान् कठोरता है ? इस प्रकार संसार से विरागी बना हुआ वह महात्मा अपने राज्य पर पुत्र को स्थापन करके शुभ भाव में प्रवृत्ति करने लगा और श्री सर्वज्ञ शासन में अपूर्व बहुत मान को धारण करते मरकर ब्रह्मदेवलोक में दैदीप्यमाना कान्ति वाला देव हुआ, उसके बाद उत्तरोत्तर विशुद्धि के कारण से कई जन्मों तक मनुष्य और देव की ऋद्धि को भोगकर वह परम सुख वाला मुक्ति पद को प्राप्त किया। इस तरह हे राजन! तुमने जो अवन्तीनाथ का और नर सुन्दर राजा का चारित्र पूछा था वह सम्पूर्ण कहा और इसे सुनकर हे सूरतेज! शत्रु के पक्ष के सर्व अशुभ कर्त्तव्य को छोड़कर, कोई ऐसी उत्तम प्रवृत्ति करो कि जिससे हे सूरतेज ! तू देवों में तेजस्वी बने।
___ गुरू महाराज के ऐसा उपदेश सुनने पर राजा का संवेगरंग अत्यन्त बढ़ गया और रानी के साथ गुरू के पास दीक्षा स्वीकार की। सूत्र अर्थ के जानकार प्रतिदिन शुभ भावना बढ़ने लगी। अतिचार रूपी कलंक से रहित निरतिचार साधु जीवन के राग वाले, छठ-अट्ठम आदि कठोर तपस्या में एकबद्ध लक्ष्य वाले उन दोनों के दिन अप्रमत्त भाव में व्यतीत होने लगे। एक समय वे महात्मा विविध दूर देशों में विहार करते हए हस्तिनापुर नगर में पधारे और अवग्रह (मकान मालिक) की अनुमति लेकर एक गृहस्थ के स्त्री, पशु, नपुंसक रहित घर में वर्षा ऋतु में निवास करने के लिये रहे। वह साध्वी भी किस तरह विहार करते उसी नगर में उचित स्थान में चौमासा करने के लिये रही। साधु धर्म का पालन करते विशुद्ध चित्त वाले उनका उस नगर में जो वृत्तान्त बना वह कहते हैं।
वहाँ अपने धन समूह से कुबेर के वैभव को भी जीतने वाला विष्णु नाम का धनपति था। उसको कामदेव के समान रूप वाला, सर्व कलाओं में कुशल विविध विलासों का स्थान, निर्मल शियल वाला 'दत्त' नाम से प्रसिद्ध पुत्र था। वह एक दिन बुद्धिमान मित्रों के साथ नृत्यकार का नाटक देखने गया। वहाँ विकासी नील कमल के समान लम्बी नेत्रों वाली तथा साक्षात् रति सदृश नट की पुत्री को उसने देखा और उसके प्रति प्रेम जागृत हुआ।