________________
३२८
श्री संवेगरंगशाला कर दोष मुक्त विशुद्ध करे । आराधना की इच्छा वाले तपस्वी आचार्य श्री के अभाव में उपाध्याय आदि के पास आत्मा की शुद्धि करे । यदि किसी तरह भी सेवन किये अतिचार भूल गये हों तो उस विषय में शल्य की उद्धार के लिए इस प्रकार से कहना कि-श्री जैनेश्वर भगवन्त जिस-जिस विषय में मेरे अपराधों को जानते हैं, उन अतिचारों की सर्व भाव से तत्पर मैं आलोचना करता हूँ। इस तरह आलोचना करते गारव रहित विशुद्ध परिणाम वाला आत्मा विस्मृत हुए भी अपराधजन्य पाप समूह को नाश करता है। इस तरह दुर्भेद पाप को धोने में जल के विभ्रम समान और संविज्ञ मन रूपी भ्रमर के लिये खिले हुये फूलों के वन समान संवेगरंगशाला नाम की आराधना के नौ अन्तर द्वार वाला ममत्व विच्छेद नाम का तीसरा मूल द्वार में आलोचन विधान नामक प्रथम मूल द्वार पूर्ण हुआ। अब पूर्व में कहे अनुसार विधि से प्रायश्चित (शद्धि) करने पर भी जिसके बिना क्षपक मुनि समाधि को नहीं प्राप्त करता है, उस शय्या द्वार को कहता हूँ।
दूसरा शय्या द्वार:-शय्या को वसति (आश्रय) कहलाता है। आराधक के लिए योग्य वसति होनी चाहिए। उसके आस-पास कठोर कर्म करने वाले चोर, वेश्या, मछुआ, शिकार करने आदि पापी तथा हिंसक असभ्य बोलने वाला, नपुंसक और अति व्यभिचारी आदि पंडौसी रहते हों, उस स्थान को स्वीकार नहीं करे। क्योंकि इस प्रकार की वसति में रहने से क्षपक मुनि को उनके अनुचित्त शब्दादि सुनकर या देखकर आदि से समाधि में व्याघात न हो जाए। सुन्दर भावयुक्त बुद्धि वालों की भी कुत्सित की संगति से भावना बदल जाती है, इस कारण से ही पापी के संसर्ग का निषेध किया है। तिर्यंच योनि वाले भी अशुभ संसर्ग से दोष और शभ संसर्ग से गुण प्रगट होते हैं। इस विषय में पर्वत के दो तोतों का दृष्टान्त है । वह इस प्रकार है :
. दो तोतों की कथा विन्ध्याचल नामक महान् पर्वत के समीप में बहने वाली हजारों नदियों से रमरणीय, कुलटा के समान, वृक्षों से घिरी हुयी कादम्बरी नामक अटवी थी। उसमें नीम, आम, जामुन, नींबू, साल, वास, बील वृक्ष, शल्ल, मोच, मालु की लताएं, बकुल, कीकर, करंज, पुन्नाग, नाग श्री पर्णी सप्तपर्ण आदि विविध नाम वाले, पुष्ट गंध वाले पुष्पों से भरे हुए वृक्षों के समूह से शोभता था। वहाँ एक बड़े वृक्ष के खोखर में एक तोती ने सुन्दर सम्पूर्ण शरीर वाले दो तोतों को उचित समय पर जन्म दिया। फिर प्रतिदिन पांख के पवन से