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श्री संवेगरंगशाला उत्तर गुणरूप चारित्र में भी आहारादि पिंड विशुद्धि प्राप्त में अथवा साधु की बारह पडिमाओं में, बारह भावनाओं में तथा द्रव्यादि अभिग्रह में, प्रतिलेखना में, प्रमार्जन में, पात्र में, उपधि में अथवा बैठते-उठते आदि में जो कोई अतिचार सेवन किया हो वह भी निश्चय आलोचना करने योग्य जानना । इर्या समिति में उपयोग बिना चलने-फिरने से, भाषा समिति में सावध या अवधारणी भाषा बोलने से, एषणा समिति में अशुद्ध आहार पानी आदि लेने से, चौथी समिति में पडिलेहन-प्रमार्जन बिना के पात्र, उपकरण आदि लेनेरखने से, और परिष्ठायनिका समिति में उच्चार, प्रश्रवण आदि को अशुद्ध भूमि में वैसे तैसे परठने से, इस तरह पाँच समिति में तथा तीन गुप्ति में प्रमाद के कारण जो कोई भी अतिचार लगा हो उन सबको भी आलोचना करने योग्य जानना । इस प्रकार रागादि के वश होकर विवेक नष्ट होने से अथवा अशुभ लेश्या से भी चारित्र को जिस प्रकार दूषित किया हो उसकी हमेशा आलोचना करनी चाहिए।
इसी प्रकार अनशन आदि छह प्रकार के बाह्य तप में तथा प्रायश्चित आदि छह भेद वाला अभ्यन्तर तप में शक्ति होने पर भी प्रमाद के कारण जो अनाचरण किया हो वह अतिचार भी अवश्य आलोचना करने योग्य है।
वीर्याचार में शिवगति के कारणभूत कार्यों में अपना वीर्य-पराक्रम को छुपाने से जो अतिचार का सेवन किया हो उसे भी अवश्य आलोचना करने योग्य जानना।
इस तरह राग द्वारा, द्वेषों से, कषायों से, उपसर्ग से, इन्द्रियों से और परिषहों से पीड़ित जीव में जो कुछ दुष्ट वर्तन किया हो उसे भी सम्यक् आलोचना करनी चाहिए । अवधारण शक्ति की मन्दता से जो स्मृति पथ में नहीं आए उस अतिचार को भी अशठ भाव वाले को उसे ओध (सरलता) से आलोचना करनी चाहिये। इस प्रकार विविध भेद वाला आलोचना योग्य आचरण कहा । अब गुरू को आलोचना किस तरह देनी चाहिए? उसे कहते
८. गुरू आलोचना किस तरह दें ?-पूर्व में कहा है उसी तरह आलोचनाचार्य गुरू भी उसमें जो आगम व्यवहारी (जघन्य से नौ पूर्व का जानकार और उत्कृष्ट से केवली भगवन्त) हो वह "जो कहूँगा उसे स्वीकार करेगा" ऐसा ज्ञान से जानकर आलोचक को विस्तारपूर्वक भूलों को याद करवा दे,