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श्री संवेगरंगशाला को आकर्षण करने वाली, निर्दोष सिद्ध करने वाली है, परन्तु अन्दर काली श्याम परिणाम वाली है।
पांचवाँ दोष :-भय से, अभिमान से अथवा माया से जो केवल सूक्ष्म या सामान्य दोषों की आलोचना करे और बड़े महा दोषों को छुपाये वह आलोचना का पांचवाँ दोष होता है। जैसे पीतल के कंडे के ऊपर सोने का पानी चढ़ाये हये के समान, अथवा कृत्रिम सोने का कंडा जिसके अन्दर लाख भरा हुआ कड़ा हो, उसके समान यह आलोचना भी जानना।
छठा दोष :-प्रथम, दूसरे, तीसरे, चौथे और पाँचवें व्रत में यदि किसी ने मूल गुण और उत्तर गुण की विराधना की हो तो उसे कितने तप का प्रायश्चित दिया जाता है ? इस तरह गुप्त रूप में पूछकर, आलोचना लिए बिना ही अपने आप उसी तरह ही प्रायश्चित करे, वह आलोचना का छठा दोष जानना अथवा आलोचना करते जिस तरह स्वयं ही सुने और अन्य नहीं सुने, इस तरह गुप्त आलोचना करे, इस तरह करने से भी छठा दोष लगता है। जो अपने दोषों को कहे बिना ही शुद्धि की इच्छा करता है, वह मृग तृष्णा के जल समान अथवा चन्द्र के आस-पास होने वाला जल का कुंडाला (तुषारावृत) में से भोजन की इच्छा रखता है। जैसे उससे इच्छा पूर्ण नहीं वैसे अपने दोष कहे बिना शुद्धि नहीं होती है।
सातवाँ दोष :-पाक्षिक, चौमासी और संवत्सरी इन शुद्धि करने के दिनों में दूसरे नहीं सुनेंगे ऐसा सोचकर कोलाहल में दोषों को कहे, वह आलोचना का सातवाँ दोष जानना । उसकी यह आलोचना रेहट की घड़ी के समान खाली होकर फिर भरने वाली सदृश है, शद्धि करने पर भी पुनः वैसे दोष लगाने हैं अथवा समूह में की हुई छींक निष्फल जाती है वैसे उसकी शुद्धि भी निष्फल ही फूटे घड़े के समान जिसमें पानी नहीं रहे वैसे इस आलोचना का फल उसमें टिक नहीं सकता है।
आठवाँ दोष :-एक आचार्य के पास आलोचना लेकर जो फिर भी उसी ही दोषों को दूसरे आचार्य श्री के पास आलोचना करे उसे बहुजन नाम का आठवाँ दोष कहा है। गुरू महाराज के समक्ष आलोचना करके उनके पास से प्रायश्चित को स्वीकार करके भी उसकी श्रद्धा नहीं करता और अन्य-अन्य को पूछे वह आठवाँ दोष लगता है। अन्दर शल्य (वेदना) रह जाने पर फोड़ा खशक होने के समान फिर रोगी को भयंकर वेदनाओं से दुःख होता है वैसे यह प्रायश्चित भी उसके समान दुःखदायी होता है।