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श्री संवेगरंगशाला
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अहित को भी हित मानता, जान-बूझकर जहर पीये वैसे ही यह आलोचना जानना।
दूसरा दोष :-क्या यह गुरू कठोर प्रायश्चित देने वाले हैं अथवा अल्प देने वाले हैं ? इस तरह अनुमान से जानकारी करे अथवा मुझे निर्बल समझकर अल्प प्रायश्चित दें, इस भावना से वह गुरू महाराज को कहे कि-'वह साधु भगवन्त को धन्य है कि जो गुरू ने दिए बहत तप को अच्छी तरह उत्साह पूर्वक करते हैं, मैं निश्चय ही निर्बल हूँ, इसलिए तप करने में समर्थ नहीं हूँ। आप मेरी शक्ति को, गूदा को दुर्बलता को और अनारोग्य को जानते हैं, परन्तु आपके प्रभाव से इस प्रायश्चित को मैं बहुत मुश्किल से पूर्ण कर सकूँगा। इस तरह प्रथम गुरू महाराज के सामने कहकर उसके बाद शल्य सहित आलोचना करे। यह आलोचना का दूसरा दोष है। जैसे सुख का अर्थी परिणाम से अहितकर अपथ्य आहार को गुणकारी मानकर खाए वैसे ही शल्यपूर्वक की यह आलोचना भी उसी प्रकार है।
तीसरा दोष :-तप के भय से अथवा 'यह साधु इतना अपराध वाला है' इस तरह दूसरे जानते हैं ऐसा मानकर जो-जो दोष दूसरों ने देखा हो उनउन दोषों की ही आलोचना ले, दूसरे जन नहीं जानते हों उसकी आलोचना नहीं ले। इस प्रकार मूढ़ मति वाला जो गुप्त दोषों को सर्वथा छुपाकर आलोचना करे। यह आलोचना का तीसरा दोष जानना । जैसे खुदते हुए कुएँ में ही कोई धूल से भरता है वैसे यह शल्य वाली विशुद्धि कर्म को बन्धन कराने वाली जानना।
चौथा दोष :-जो प्रगट रूप में बड़े-बड़े अपराधों की आलोचना करे, सूक्ष्म की आलोचना नहीं करे अथवा केवल सूक्ष्म दोषों की आलोचना करे, परन्तु बड़े दोषों की आलोचना नहीं करे, वह उसमें इस तरह श्रेष्ठ माने कियदि सूक्ष्म-सूक्ष्म दोषों की आलोचना करता है, वह बड़े दोषों की क्यों नहीं आलोचना करे ? अथवा यदि बड़े-बड़े दोषों की आलोचना करता है, वह सूक्ष्म दोषों की आलोचना क्यों नहीं करेगा? इस तरह अन्य समझेंगे, इससे प्रभाव पड़ेगा। ऐसा मानकर जहाँ-जहाँ उसके व्रत का भंग हुआ हो, वहाँ-वहाँ बड़े दोषों की आलोचना करे और सूक्ष्म दोषों को गुप्त रखे। यह चौथा आलोचना का दोष कहा है। जैसे काँसे की जाली अन्दर से मैली और बाहर से उज्जवल रहती है वैसे इस आत्मा में सशल्यत्व के दोष से यह आलोचना बाहर से लोगों