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श्री संवेगरंगशाला
की इच्छा न करे तो उससे घर की अग्नि को शान्त करने की आशा कैसे कर सकते हैं ? सिद्धान्त में सारभूत ज्ञान में, दर्शन में और चारित्र में, इन तीनों में जो अपने आपको तथा गच्छ को स्थिर करता है वह गणधर कहलाता है। हे वत्स ! चारित्र की शुद्धि के लिए उद्गम, उत्पाद आदि दोषों से रहित अशन आदि पिंड उपधि को और बस्ती को ग्रहण करना जो आचार में वर्तन करता है वही आगम में आचार्य की मर्यादा कही है और ऊपर कहे आचार रहित जो रहता है वह मर्यादा की अवश्य विराधना करता है। सर्व कार्यों में गुह्य तत्त्व को गुप्त और सम्यक् समदर्शी बनना, बाल और वृद्धों से युक्त समग्र गच्छ का नेत्र के समान सम्यग् रक्षण करना । जैसे ठीक मध्य में पकड़ा हुआ सोने का काँटा (तराजू) वजन को समभाव में धारण करता है अर्थात् एक पलड़े में सोना और दूसरे पलड़े में लोहा हो तो भी वह समभाव से धारण करता है अथवा जैसे समान गुण वाले दोनों पुत्र को माता समान रूप सार सम्भाल रखती है अथवा जैसे तू अपने दोनों नेत्रों को किसी प्रकार के भेदभाव बिना एक समान सार सम्भाल रखता है, वैसे विचित्र चित्त प्रकृति वाले भी शिष्य समुदाय प्रति तू समान दृष्टि वाला बनना । जैसे अति दृढ़ मूल रूप गुण वाला वृक्ष के विविध दिशा में उत्पन्न हुये भी उत्तम पत्ते चारों तरफ घिरे हुये होते हैं, वैसे दृढ़ मूल गुणों से युक्त तुझे भी भिन्न-भिन्न दिशा से आये हुये ये महामुनि भी सर्वथा घिरे हुये रहेंगे। (यहाँ दिशा अलग-अलग गच्छ समुदाय समझना) और जैसे पत्ते समूह से छाया वाला बना हुआ वृक्ष पक्षियों का आधार भूत बनता है, वैसे मुनि रूपी पत्तों के योग से कीर्ति को प्राप्त करने वाले तू मोक्ष रूपी फल की इच्छा भव्य प्राणी रूपी पक्षियों के सेवा पात्र बनेंगे।
इसलिए तुझे इन उत्तम मुनियों को लेशमात्र भी अपमानित नहीं करना । क्योंकि तूने उठाये हुए सूरिपद के भार को उठाने में तुझे वे परम सहायक हैं। जैसे विन्ध्याचल भद्र जाति के, मन्द जाति के, मृग जाति आदि के विविध संकीर्ण जाति वाले हाथियों का सदाकाल भी आधारभूत है, वैसे तू भी क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य और क्षुद्र कुल में जन्मे हुये और संयम में रहे सर्व साधुओं का आधारभूत बनना । तथा उसी विन्ध्याचल जैसे नजदीक रहे और दूर वन में रहे हाथियों के यूथों का भेद बिना समान भाव से आधार रूप धारण करते हैं, आश्रय को देते हैं, वैसे हे सुन्दर ! तू भी स्वजन-परजन आदि संकल्प बिना समान रूप में इन सर्व मुनियों का आधारभूत बनना । और स्वजन या परजन को भी बालक समान, स्वजन-सदन बिना का, रोगी, अज्ञान, बाल वृद्धादि सर्व मुनियों का परम सहायक तू बनना । प्रेमयुक्त से पिता समान