________________
श्री संवेगरंगशाला
२८३ जैसे सुभट अपने स्वामी को, अन्धा उसके हाथ पकड़ने वाले को, और मसाफिर सार्थपति को नहीं छोड़ता है, वैसे तुम्हें भी इस गुरू को नहीं छोड़ना। यह आचार्य यदि सारणा-वारणा आदि करे तो भी क्रोध नहीं करना । बुद्धिमान कौन हितस्वी मनुष्य के प्रति क्रोध करे ? किसी समय पर उनका कड़वा भी कहा हुआ उसे अमृत समान मानते तुम कुलवधू के समान उनके प्रति विनय को नहीं छोड़ना।"
____ इस कारण से शिष्य गुरू की इच्छा में आनन्द मानने वाला और उनके प्रति रुचि रखने वाला, गुरू की दृष्टि गिरते ही-इशारे मात्र से स्वेच्छाचार को मर्यादित करने वाला और गुरू की इच्छानुसार विनय वेष धारण करने वाला, कुलवधू के समान होता है । कार्य-कारण की विधि के जानकार यह गुरू किसी समय पर तुम्हारे भावि के लिए कृत्रिम अथवा सत्य भी क्रोध से चढ़ी हुई भयंकर भृकुटी वाले, अति भयजनक भाल तल वाले होकर भी तुमको उलाहना दे और निकाल दे तो भी 'यह गुरू ही हमारा शणगार है' ऐसा मानना और हृदय में ऐसा चिन्तन करते तुम अतिशय दक्षतापूर्वक विनय करके उनको ही प्रसन्न करना । वह इस प्रकार चिन्तन करे-स्वामी को प्रसन्न करने में समर्थ उपाय अनेक प्रकार के हैं। उन सफल उपायों को सद्भावपूर्वक बारबार अपने मन में चिन्तन करना। उन भव्य जीवों अथवा सेवकों के जीवन को धिक्कार है कि-जिसके ऊपर पास में रहे हुए मनुष्य प्रसन्न हों ऐसे स्वामी क्षण भर को भी क्रोध नहीं करते, अर्थात् गुरू जिसके प्रति हित करने के लिए क्रोध करते हैं, वह धन्य है । क्योंकि उसकी योग्यता हो तो ही गुरू महाराज उस पर क्रोध करके भी सुधारने की इच्छा करते हैं। तथा जैसे समुद्र में समुद्र के संक्षोभ (उपद्रवों) को नहीं सहन करने वाला-सूख की इच्छा वाला मगरमच्छ उसमें से निकल जाता है, तो वह निकलने मात्र से नाश होता है, वैसे ही गच्छ रूपी समुद्र में गुरू की सारणा-वारणादि तरंगों से पराभव प्राप्त कर सूख की इच्छा वाले तुम गच्छ से निकलकर अलग नहीं होना, अन्यथा मगरमच्छ के समान संयम से नष्ट होगे । महान् आत्मा यह तुम्हारा गुरू अनेक गुण रूपी रत्नों का सागर है, धीर है और इस संसार रूपी अटवी में फंसे हुए तुम्हारा रक्षक करने वाला नायक है। धीरता को धारण करने वाले इस गुरू को तुम 'दीक्षा पर्याय से छोटा, समान पर्याय वाला है, अथवा बहुत अल्प पढ़ा हुआ है' ऐसा समझकर अपमान नहीं करना । क्योंकि यह गच्छ का स्वामी होने से अति पूजनीय है।