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श्री संवेगरंगशाला
ર૧ वाला और प्रीतिजनक वचनों द्वारा सम्यग् रूप में समझाए, फिर भी तीव्र गारव आदि दोषों से अपने दोषों को स्पष्ट रूप नहीं कहे तो उस ओवीलग गुरू को उसकी लज्जा को छोड़ देना चाहिए, अथवा जैसे अपने तेज से सिंहणसियार के पेट में रहे मांस का वमन कराता है वैसे आचार्य श्री दोषों को बताने में अनुत्साही के दोषों को कठोर वाणी से प्रकट कराते हैं, फिर भी वह कठोर वचन कटु औषध के समान उस आलोचक को हितकारी होता है । क्योंकि परहित की उत्तरदायी की उपेक्षा करने वाला केवल स्वहित का ही चिन्तन करने वाला जीव जगत में सुलभ है, परन्तु अपने हित और पर के हित का चिन्तन करने वाले जीव जगत में दुर्लभ है। यदि क्षपक के छोटे अथवा बड़े भी दोषों को प्रगट नहीं कराते हैं तो वह क्षपक साधु दोषों से निवृत्त नहीं होता है और इसके बिना वह गुणवान नहीं बन सकता है। इसलिए उस क्षपक के हित का चिन्तन करते ओवीलग आचार्य को निश्चय ही क्षपक साधु के सब दोषों को प्रगट करवाने चाहियें।
५. प्रकृवी :-अर्थात् शुद्धि करने वाला, शय्या संथारो, उपधि, संभोग (सहभोजनादि) आहार, जाना, आना, खड़े रहना, बैठना, सोते रहना, परठना अथवा कर्म निर्जरा करना इत्यादि में और एकाकी विहार अथवा अनशन स्वीकार करने में, अति श्रेष्ठ उपकार को करते जो आचार्य सर्व आदरपूर्वक, सर्व शक्ति से और भक्ति से अपने परिश्रम की उपेक्षा करके भी तपस्वी की सार संभाल में हमेशा प्रवृत्त रहे वही प्रकुर्वक आचार्य कहलाते हैं । थके हुए शरीर वाले क्षपक प्रतिचरण (सेवा) गुण से प्रसन्नता को प्राप्त करते हैं। इसलिये क्षपक को प्रकुर्वी के पास रहना चाहिए।
६. निर्वापक :-अर्थात् निर्वाह करने वाले निर्यामक अथवा निर्वाहकसंथारा, आहार या पानी आदि अनिष्ट देने से अथवा बहत विलम्ब द्वारा देने से, यावच्च करने के प्रमाद से या नवदीक्षित आदि अज्ञ साधुओं को सावध वाणी द्वारा अथवा ठण्डी, गरमी, भूख, प्यास आदि से, अशक्त बनने से या तीव्र वेदना से जब क्षपक मुनि क्रोधित हो अथवा समाचारी-मर्यादा को तोड़ने की इच्छा करे, तब क्षमा से युक्त और मान से मुक्त निर्वापक आचार्य को क्षोभ प्राप्त किये बिना साधु के चित्त को शान्त करना चाहिये । रत्न के निधान रूप अनेक प्रकार के अंग सूत्रों अथवा अंग बाह्य सूत्रों में अति निपूण तथा उसके अर्थों को अच्छी तरह कहने वाला और दृढ़तापूर्वक उसका पालक, विविध सूत्रों को धारण करने वाला, विविध रूप में व्याख्यान कथा करने