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श्री संवेगरंगशाला सैन्य को अच्छी तरह पराजय करके दुर्ध्यान रूपी सन्ताप के अपशम भाव वाले हे सुविहित मुनिवर्य ! आत्मा के हित को चाहने वाला तू अणु मात्र भी दुष्कृत्य की विधिपूर्वक आलोचना कर । इस आलोचना करने के दस द्वार हैं। वह इस प्रकार हैं :-(१) आलोचना कितने समय में देनी ? (२) किसको देनी ? (३) किसको नहीं देनी ? (४) नहीं देने से कौन-से दोष लगते हैं ? (५) देने से कौन-सा गुण होता है ? (६) आलोचना किस तरह देनी ? (७) गुरू को क्या कहना ? (८) गुरू ने आलोचना किस तरह देनी ? (8) प्रायश्चित, और (१०) फल है, वह अनुक्रम से कहते हैं :
१. आलोचना कब देनी?—जिसके पैर में काँटा लगा हो, वह जैसे मार्ग में अप्रमत्त चलता है वैसे अप्रमत्त मन वाले मुनिराज प्रतिदिन सर्व कार्यों में यतना करता है, फिर भी पाप का त्यागी होने पर भी कर्मोदय के दोष से किसी कार्य में किंचित् भी अतिचार लगे हों और उसकी शुद्धि की इच्छा करते मुनि, पक्खी, चौमासी आदि में अवश्य आलोचना दे तथा पूर्व में स्वीकार किया हुआ अभिग्रह को बतलाकर फिर नया अभिग्रह स्वीकार करे। इस तरह श्री जैन वचन के रहस्य को जानते हुये, संवेग में तत्पर अथवा प्रमादी साधु ने भी अन्तिम अनशन में तो अवश्य आलोचना देनी चाहिये। इस तरह जितने काल की आलोचना देनी हो उसे कहा है । अब किस प्रकार के आचार्य को आलोचना देनी उसे कहते हैं।
२. आलोचना किसको देनी ?-जैसे लोगों में कुशल वैद्य के आगे रोग को प्रगट किया जाता है वैसे लोकोत्तर मोक्ष मार्ग में भी कुशल आचार्य श्री को भाव रोग भी बतलाना चाहिए। यहाँ पर जो भाव रोग को बतलाए उसी को हो कुशल जानना तथा दोष के प्रायश्चित आदि के जानकार, अत्यन्त अप्रमादी और सबके प्रति समष्टि वाला हो, इसके दो भेद हैं प्रथम आगम व्यवहारी और दूसरा श्रुत व्यवहारी। उसमें आगम से छह प्रकार के कहे हैं, वह(१) केवली, (२) मनः पर्यवज्ञानी, (३) अवधि ज्ञानो, (४) चौदह पूर्वी, (५) दस पूर्वी, और (६) नौ पूर्वी जानना । और श्रुत से जैनकल्प, महानिशिथ आदि को धारण करने वाले इसके अतिरिक्त आज्ञा व्यवहारी और धारण व्यवहारी को भी श्री जैनेश्वरों ने कारण से कुशल समान कहा है । जैसे विभंग रचित चिकित्सा शास्त्र के जानकार रोग के कारण को तथा उसे शान्त करने वाली औषध के जानकार विविध रोग वालों को भी विविध औषध को देता है और उसका उपयोग करने से रोगियों का तत्काल रोग शान्त होता है और