________________
३००
श्री संवेगरंगशाला
1
लघुता होते देखकर आवेशपूर्वक कहा कि - अरे मूढ़ लोगों ? तुम मर्यादा रहित ऐसा क्यों बोल रहे हो ? क्या तुम नहीं जानते कि जहाँ मुनिवर्य ने आगम शास्त्रों की युक्ति के अनुसार धर्म क्रिया को स्वीकार किया है उस समय से असिव आदि उपद्रव चले गये हैं । फिर भी किसी कारण से वह उपद्रव आदि होते वह भी अपने कर्मों का ही दोष है, फिर साधु के प्रति क्रोध क्यों करते हो ? तुम्हारे द्वारा निश्चय ही निष्फल क्रोध किया जा रहा है । अतः हमारे / आदेश से राजा को न्याय मार्ग में स्थिर करो । कुतर्क को छोड़ दो । वे दुष्ट सेवक हैं कि जो उन्मार्ग में जाते स्वामि को हित की शिक्षा नहीं देते । साधु के कहने पर भी उन पुरुषों ने कहा कि - हे साधु ! अधिक मत बोलो, यदि तुम्हें यहाँ रहने की इच्छा है तो आप स्वयमेव जाकर राजा को समझाओ। फिर वह मुनि उन पुरुषों के साथ राजा के पास गया और आशीर्वादपूर्वक इस तरह कहने लगा कि - हे राजन् ! तुम्हें इस तरह धर्म में विघ्न करना योग्य नहीं है । धर्म का पालन करने वाले राजा की ही वृद्धि होती है और उस शास्त्रोक्त धर्म क्रिया के पालन में दत्तचित्त वाले साधुओं का विरोधी लोगों को सम दृष्टि के द्वारा रोकने की होती है । आप ऐसा मत समझना कि - क्रोधित हुये ये साधु क्या कर सकते हैं ? अति घिसने पर चन्दन भी अग्नि प्रगट करता है । इत्यादि कहने पर भी जब राजा ने दुराग्रह को नहीं छोड़ा तब उस मुनिवर ने 'यह दुष्ट है' ऐसा मानकर विद्या के बल से उसके महल के महान और स्थिर स्तम्भ भी चलित हो गये । मणि जड़ित भूमि का तल भाग था वह भी कम्पायमान हो गया, ऊपर के शिखर गिर पड़े, पट्टशाला टूट गई, उत्तम तोरण होने पर नम गये, दिवारों में खलबली मच गई, चारों तरफ से किल्ला काँपने लगा और कई टूटी हुई सेंध दिखने लगीं । वह राजा ऐसा देखकर भयभीत बना, अति मानपूर्वक पैरों में पड़कर साधुओं को विनती करने लगा कि - हे भगवन्त ! आप ही उपशम भाव के स्वामी हो, दया की खान स्वरूप और इन्द्रिय कषायों को जीतने वाले हो, आप ही संसार रूपी कुयें में गिरे हुए जीवों को हाथ का सहारा देकर बचाने वाले हो । इसलिए मलिन बुद्धि वाले मेरा यह एक अपराध क्षमा करो । पुन: मैं ऐसा कार्य नहीं करूँगा, अपने दुष्ट शिष्य के समान मेरे प्रति अब प्रसन्न हो । हे मुनीन्द्र ! मन से भी कदापि ऐसा करने के लिए मैं नहीं चाहता हूँ, परन्तु पुत्र पीड़ा की व्याकुलता से मैंने दुष्ट प्रेरणा से यह किया है । अब इस प्रसंग के कारण से आपकी शक्तिरूपी मथानी से मथन करने से मेरा मनरूप समुद्र विवेक रत्न का रत्नाकर बना है अर्थात् विवेकी बना है, इस कारण से उस पुत्र से क्या प्रयोजन है ? और उस राज्य तथा