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श्री संवेगरंगशाला
जलाने में हिम के समूह समान और यम के साथ युद्ध में जय पताका की प्राप्ति कराने में सफल हेतुभूत संवेगरंगशाला रूपी आराधना के दस अन्तर द्वार वाला गण संक्रम नामक दूसरे द्वार में सुस्थित ( गवेषणा) नामक पांचवां द्वार कहा है । इस तरह कही हुई सुस्थित की गवेषणा भी जिसके अभाव में फल की साधना में समर्थ न बने इसलिये अब वह उप-संपदा द्वार को कहता हूँ ।
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छठा उप-संपदा द्वार : - इस तरह निर्यामक के गुणों से युक्त और ज्ञान क्रिया वाले आचार्य श्री की खोज करके वह क्षपक उस आचार्य श्री की उपसम्पदा ( निश्रा) को स्वीकार करे । उसमें सर्वप्रथम पच्चीस आवश्यक से शुद्ध गुरू वन्दन करके विनय से दोनों हाथ से अंजलि करके सर्व रूप आदरपूर्वक इस तरह कहे—हे भगवन्त ! आपने सम्पूर्ण द्वादशांगी रूप श्रुत समुद्र को प्राप्त किया है एवं इस शासन में सकल श्री श्रमण संघ के निर्यामक गुरू हो, आज इस शासन में आप ही श्री जैन शासन रूपी प्रासाद (महल) के आधार रूप स्तम्भ हो और संसार रूपी वन में भ्रमण करते थके हुए प्राणियों के समूह के समाधि का स्थान है । इस संसार में आप ही गति हो, मति हो, और हम अशरणों के शरण हो, हम अनाथों के नाथ भी आप हो, इसलिए हे भगवन्त ! मैंने योग्य शेष कर्त्तव्यों को पूर्ण किया है । मैं आप श्री जी के चरण कमल में दीक्षा के दिन से आज तक की सम्यग् भाव से आलोचना देकर दर्शन, ज्ञान और चारित्र को अति विशुद्ध करके अब दीर्घकाल तक पालन की साधुता का फल भूत निःशल्य आराधना करने की इच्छा करता हूँ । इस प्रकार साधु के कहने पर निर्यामक आचार्य कहे कि - हे भद्र ! मैं तेरे मनोवांछित कार्य को निर्विघ्नतापूर्वक शीघ्र से शीघ्र सिद्ध करूँगा । हे सुविहित ! तू धन्य है कि जो इस तरह संसार के सम्पूर्ण दुःखों का क्षय करने वाली और निष्पाप आराधना करने के लिए उत्साही बना है । हे सुभग ! तब तक तू विश्वस्त और उत्सुकता रहित बैठो कि जब तक मैं क्षण भर वैयावच्च कारक के साथ में इस कार्य का निर्णय करता हूँ । इस तरह दुर्गति नगर को बन्द करने के लिये दरवाजे के भूगल समान, मृत्यु के सामने युद्ध में जय पताका की प्राप्ति कराने में सफल हेतुभूत यह संवेग रंगशाला नाम की आराधना में दस अन्तर द्वार वाला दूसरा गण संक्रमण द्वार का छठा उप-सम्पदा नाम का द्वार कहा है । अब उप-संपदा स्वीकार करने पर भी मुनि परम्परा की परीक्षा के अभाव में शुद्ध समाधि को प्राप्त नहीं करते हैं, इसलिए परीक्षा द्वार को कहते हैं :
सातवाँ परीक्षा द्वार : - उसके बाद सामान्य साधु अथवा पूर्व में कहे अनुसार उस अनशन की इच्छा वाला आचार्य, उनकी प्रथम प्रारम्भ में ही